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प्राचीनगूर्जर काव्यसङ्ग्रहः
पढतां गुणतां हुउ हुयइ, अर्थक्रूड कहई हुइ, सत्रु अर्थ बेउ कूडां कह्यां हुई, ज्ञानोपकरण पाटी पोथी कमली सांपुढं सांपुडी आशातन पगु लागउ थुंकुलागउं पढतां प्रद्वेष मच्छरु अंतराइउ हउं कीधउ हुई, तथा ज्ञानद्रव्यु भक्षितु उपेक्षित प्रज्ञापराध विणास्य विणासितउं ऊवेख्यं हुंती सक्ति सारसंभाल न कीधियह, अनेरइ ज्ञानाचारिउ कोइ अतीचारु हुउ सुक्ष्मबादरु मनि वचनि काइ पक्षदिवसमांहि तेह सवहि मिच्छा मि दुक्कडुं ॥
सातमह भोगोपभोगवति सचित्तद्रव्यविगइ खासहाइ पाणही पानि फोफलि बहसणि आसणि सयणि न्हाणुअइ अंगोहलि फलि फूलि भोजनि आच्छादन जु कोइ अतिचारु हुयउ पक्षदिवसमांहि
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बारि भेदि तपु छहि भेदि बाह्य अणसण इत्यादि उपवास आंबिल नीविय एकासणु पुरिमदृ व्यासणं यथाशक्ति तपु तथा ऊनोदरितपु वृत्तिसंखे | रसत्यागु कायकिलेसु, संलेखना कीधी नहि, तथा प्रत्याख्यान एकासणां विपुरिम साढपोरिसि पोरिसिभंगु अतीचारु नीविय आंबिलि उपवास की विरासई सचित पाणी पीधउं हुयइ पक्षदिवसमांहि
प्रतिषिद्ध जीवहिंसादिकतणइ करणि कृत्य देवपूजा धर्मानुष्ठानतणइ अकरणि जि जिनवचनतणइ अश्रद्दधानि विपरीतपरुपणा एवं बहुप्रकारि जु कोइ अतीचारु हुयउ पक्षदिवसमांहि ||
सर्वतीर्थनमस्कारस्तवन
( संवत् १३५८ मां लखायेला कागळना पुस्तकमांथी )
पहिलउं त्रिकाल अतीत अनागत वर्त्तमान बहत्तर तीर्थकर सर्वपापक्षयंकर हर्ज नमस्करउं ।
तदनंतरु पांचे भरते पांचे ऐरवते पांच महाविदेहे सत्तरिसउ उत्कृष्टकालि विहरमाण हउं नमस्करजं ।
तर पहिलइ सौधमि देवलोकि बीस लाख, बीजइ ईसानि देवलोकि अठ्ठावीस लाख, त्रीजइ सनतकुमारि देवलोकि बारलाख, चत्थर माहेंद्रदेवलोकि आठ लाख, पांचमह ब्रह्मदेवलोकि च्यारि लाख, छठ्ठलांतकि
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