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सम्यकत्वमाईचउपइ सिद्धिसुरकु जगि सहु को लहइ दृढसमिकतु जइ हियडइ रहइ । दृढ समिकतु श्रेणिकराय होइ प्रथम तिथंकर होसइ सोइ ॥५॥ धन जि गुरपारषउ करंति गुरु विणु समिकतु किमइ न हुँति । मुहुतु एक समिकतु फरसेइ पुद्गल अरधमाहि सिद्धि विनेइ ॥ ६ ॥ अच्छइ मोहचरड्डु इणि समइ समिकतु रयणु न लाभइ किमइ । कुगुरु सुगुरु अंतरु न हु करइ इणि कारणि चउगति जिउ फिरह॥७॥ आगमवयणु पंचमइ अरइ केवलनाणु प्रभव हुइ परइ । इसइ कालि समिकतदृढचित्त ते नर जाणे जगह पवित्त ॥८॥ इणि भवि परभवि सुरकु लहेउ सतगुरुतणउं वयणु पालेहु । वीतराग जउ वंदिसि पाय ऊडइ पापु होइ निम्मल काय ॥९॥ इंदियालु जगि दीसइ लोइ बालवृड्डु न हु छूटइ कोइ । धरमसंबलु जइ सरिसउ लेइ पार गया तउ सुकु माणेइ ॥ १०॥ ऊगमतइ जे नर दीसंति चउंजणकंधि चडिया ते जंति । सुकिय दुकिय बे सरिसा चलई सजनमीत बोलावी वलई ॥ ११ ॥ ओसरि वावियइ लाभु न हुंति सजलु होइ बीजह चूकंति । सूधउं दानु मुनिहि जो देइ संगमतणउ लाभु सो लेइ ॥ १२॥ रिडिहितणउ लाभु जगि लेहु दस खेत्रे तुम्हि धनु वावेहु। दीन्हादानह नासु म जोइ सुपात्रि दीन्हइ बहुफलु होइ॥ १३ ॥ रीतिहि दानह नथी निवार उचितु दानु दीजइ सविवार । कृसनभयसिउ जउ खड्डु वारंति पात्रविसेषिहि षीरु स दिति ॥ १४ ॥ लिहियं जगि लोडइ सउ कोइ कुपात्रु विसहरसाहसु होइ। खीरु आणि जउ मुखि घातियइ पात्रविसेषिहि तसु विसु थियइ॥१५॥ लीह न लंघउं सतगुरतणी क्रिया करउं जा आगमि भणी । विधिमारगु मानउं सविवार जाणउं जइ छूटउं संसार ॥ १६ ॥ एहु करेवउं नर संसारि त्रिन्नि वार जउ चडिउ विहारि । वीतराग जउ भणिउ करेसु दस आसातन नितु राखेमु ॥ १७ ॥ ऐ वार मेल्हिउ जिणु पूजेसु रयणिहिं रमणिगमणु वारेसु । न्हवणु तं दिजहि निसिभरि रहई तं विहिमंदिर सतगुरु कहइ ॥१८॥
ओ दीसह मंदिरु जगि सारु धम्मरयणकेरउ भंडारु। चउरासी आसातन नितु राषेसु मंदिरि दिवसह बलि ढोएसु॥ १९॥
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