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प्राचीन गूर्जरकाव्यसङ्ग्रहः
शरउपरि मूढा मन पेलि जिनधमु लाधउ पाइ म ठेली । तिहूअणचिंतामणि जिनधम्मु करीन जीव भाजइ भवभ्रं ॥ ५६ ॥ षणि षणि आउ गलंतर देषि भवि पडंतु अपुं म ऊवेषि । करि न धम्मु जं केवलिकहीउ जा सिवपुरि लेषउं विखहीउ ॥ ५७ ॥ सहजि जीउ भवगूतलि करइ कर्म्म वुहुरादाणी घणु धरई । जे कर्म्मत नही य ऊधारु भवगोतिहिं दुखु सहिसि अपारु ॥ ५८ ॥ हरिषु विषाद करिसि मन कोई जड़ जीव आपद संपदं होह । अवशु फलीसइ पुवभवकिउं नं भोगवै कोइ अणकिउं ॥ ५९ ॥ जंघई दीव पुहवि समुद्द गिरिकंदरा भमइ बहुरुद्द । रिद्धिकाजि इन्तीउ रझभडइ न करै धम्मु जिणि रिधि संपडइ ॥ ६० ॥ क्षुणभंगुरु एउ सहइ जाणि म करिसि जीव धरमनी काणि । विणसई सहु कहइ आगम्मु अविनसुरु एकु जिम्मु ॥ ६१ ॥ मंगल कर सवि अरिहंत जे अच्छई सिवलच्छीकंत । मंगल सिद्धि सूरि उवज्झाय मंगलं करउं साहुणा पाय ।। ६२ ॥ मंगलमूल सबहिं आगम्मु जो जगमाहि अच्छा निरुपम्मु । जसु अतिसइ न लाभइ अंतु मंगलु करउ सोइ जि सिद्धंतु ॥ ६३ ॥ जा ससिसूरु भूयणु व्याप्पंति जा ग्रह नक्षत्र तारा हुंति ।
जा वरतइ वसुहव्यापारु तां सिवलच्छि करउ मंगलाचारु ॥ ६४ ॥
मातृकाच उपइ समाप्ता
सम्यकत्वमाईचउपइ
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भले भणडं माधुरि जोइ धम्मह मूल जु समिकतु होइ । समकतुविणु जो क्रिया करेइ तातइ लोहि नीरू घालेइ ॥ १ ॥
अंकारि जिणु पणमेसु सतगुरुतणउं वयणुं पालेसु ।
आगम नवतत बूज्झिसि तिमई समिकतु रयणु होइ तसु तिमइ ॥ २॥ नर नवकारू सुमरि जगसारु चउदह पुव्वह जो समुद्धारु । समित जइ लाभइ संसारिं जाणे छुरी पडी भंडारि ॥ ३ ॥ मनु चंचल अटझाणि पडेइ घडियमाहि सातमिय ह नेइ । मनु मयगलु शुभ ध्यानु करंति प्रसंनचंद जिम सिडिहिं जंति ॥ ४॥
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