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________________ मातृकाचउपइ G७ णवणवपरि भग्गऊ भवचारु सांमीअ करिउ अम्हारी य सार । असरणसरणु तुहुं जि जगनाह भवि पडत अम्ह देजे बाहु ॥ ४१ ॥ तनु धनु जीवीउ जौवनु जोइ रिडि समिद्धि सइअणु सहू कोई। दिवस पांच मेलावउ होइ पाछइ वलीउ न दीसइ कोइ ॥४२॥ थरथर कंपई काइरचित्त देषीउ मुनिवर माहासत्त । धीरा सत्तवंत जे जाण पालई दीषसहीउ जिणआण ॥ ४३ ॥ दमि इंदिअ दुग्गइदूआर लूसीउ लिअई सुक्रितु सविवार । जे न जिणिसि जिणवयणविचारि देसिइं दृषु बहूसंसारि ॥४४॥ धरमध्यांनि करि निमलु चितु जिम हुइ जीव जनमु सुपवितु। धमिहि सिवह सौषसंपत्ति धमिहि वलीउ न भवि उतपत्ति ॥ ४५ ॥ नर नीतु नमो नीमि जिणनाहु आठकरम जिणि दिन्हौ दाउ । मोहराउ रिणि भंजीउ करी लीलहं लई सामि सिवपुरी ॥ ४६॥ पढइ गुणइ वरकाणइं सुतु पुणु बुझई नही तोइ ततु । रागु द्वेषु मनभीतरि धरइं ईमइ वेखविडंबउ करई ॥ ४७ ॥ फलइ करमु परभवहतण जइ रिडिरहि जीउ हीडइ घणउं । दुषु सुषु सहू पइ लागम आवइ स्रिजिउं सरिसु आतमा ॥४८॥ बलि कीउ जीवीउ तीहं संसारि जे दिन गमइ पापव्यापारि । सफलु जनमु तीहं नरनारि जे जिनधमि द्रिढ चित्तमझारि ॥ ४९॥ भविं भवु बोलई जीव अनंत जाणइं नही वइणु अरिहंत । न मुणइं अंतर पावह पुन्नु तीहं सोकल कांई सिरिज्या कान ॥५०॥ मइणु जि मारइं ते जगि सूर जे मारीयइं मइणि ते भूर । धीरा सुभट सतु ऊटवइ मारीउ मयणु नाउं नीठवई ॥५१॥ य करई तप्पु नीमु संजमु तीहं दुर्गतिनउ नही कोइ गंमु । जीहं स रोईउ हुई जिनधंमु विलसइं मुकतिसोषु निरुपंमु ॥५२॥ रहिसिई पूत कलत घरबारु रहिसिइ सइणु सह परिवारु । रहिसिइ धणुकणुरइणुभंडारु जीउ एकलउ जाइ निधारु ॥५३ ॥ लइ जिनदीष मूकि संसारु आठकरम दहीउ करि च्छारु । निरुपम सुषु सिवनइरीतणउं लहिसि जीव आगमि जिनभणिउ ॥५४॥ वचनव्यापु जोइ जिणवरतणउ अरथ गंभीरु अच्छइ तहिं घणउ । जो साइरि जलबिंदहं पारु तउ लभइ सिहंतविचारु ॥५५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003980
Book TitlePrachin Gurjar Kavyasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC D Dalal
PublisherCentral Library
Publication Year1920
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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