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प्राचीनगूर्जरकाव्यसङ्ग्रहः अनुदिनु भत्ति करे जिनराय पूजि त्रिकाल तासु पहुपाय । मानषतु दोहिलई पामेसि पाच्छइ जिनपति काहा नमेसि ॥ २६ ॥ कपटिहि मायां वंचइं लोकु ते नवि लहई सिद्धिसंजोगु । भमडइं जीव चहुंगतिहि मज्झारि इणपरि भव पूरई संसारि ॥ २७ ॥ खजइ जगु एउ कालकु अंति एह एतला नही काइ भंति । जिणह वइणु विडिजा इकमणउ भउ फीटिसइ क्रितांतहतणउ ॥२८॥ गन्भवासि जो दिलउं जाण तउ तउं माने जिनवरआण । फेडइ दुषु सहू जिनराउ तउ सिवनइरि अ पावइ ठाउ ॥ २९॥ घरि घर हिंडिसि जीव अणाहु जइ न नमिसि जिनु तिहूअणनाहु । जिनुधमविणु सुषु नहीं संसारि अवर टमालि दीस मन हारि ॥ ३०॥ ङश्चई सरिसु धम्मु जइ करिसि तउ भंडोरु परत नउ भरिसि । जे यणु लागिसि लोकप्रवाहि रडभड हुइसइ चुहुंगतिमाहि ॥ ३१॥ चक्रवति षट्षंडह धणी हंती रिडि तीहंनइ घणी । जो रिडिहिं परिताणु होउ त बंभु संभुमु निरगि नवि जंत ॥ ३२॥ छविह जीव करेजे रष जइ तुम्हि जिणसासणि छउ दष । आतमवतु जीव सवि गणे धम्मह त सारु इउ मुणे ॥ ३३ ॥ जगगुरु जगरषणु जगनाहु जगबंधवु जगसथवाहु । जगतारणु जिउ जगआधारु जिणविणु अवरि नही भवपारु ॥ ३४॥ जडइ पापु जिम तरुअरि पनु जइ मनमाझि वसइ इकु जिन्नु । जापुलसेषुलि कांइ करेसि जिनि एकलई मुकति पामेसि ॥ ३५ ॥ असिदिन्नु पंचप्रमिष्ठि सुमरेजि इणपरि असुभुं करमु षपेजि । सुभउं करमु वाधजे घणउं जिम सुषु लह सिवनगरीतणउं ॥ ३६ ॥ टलइ मेरु जो परवतराजु जो रवि पच्छिम ऊगई आजु । जो सायरु मिल्हइ मज्जाइ तोइ जिनभासिउं अलीउ न थाइ ॥ ३७॥ ठगीसि राषे कुगुरि कुबोधि जिनकसवट्टी लेजे सोधि । पूजइवानी आसतणी रिधि संग्गहे सुक्रितनी घणी ॥ ३८॥ डसीइ कालभूअंगमि लोकु तेह नवि लागई औषधजोगु । वीतराग मंत्रवादी य विणउं विसु पसरइ अठकरमहतणां ॥३९॥ ढलिइ पासइ देजे दाउ धणकणजौवन करिसि म गाउ । जगसरुपु देषे इंदीआलु करे धमु परहरीउ टमालु ॥ ४०॥
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