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मातृकाचउपइ
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अनुव्रतु जिनह आण मनि धरे उपसमु विवेकु संवरु करे । अरिवY अंतरंगु निग्रहे इणि परि जीव सुकृतु संग्रहे ॥ ११ ॥ आलिहि अलीउ म झंषिसि किमइ जे जिनुवयणु हियई तू गमइ । करमुबंधु पडतउ चीतवे भाषासमि वि सहजि अनुभवे ॥ १२ ॥ इणि संसारि दूषभंडारि लइन जीव काय धम ऊगारि । वीतरागि जं आगमि कहीउ करे तइ जि यणु भावनसहीउ ॥ १३ ॥ ईमइ म कारसि कूडउ सोसु सोचइ जिनह वयणि करि तोसु । जोइउ आगमतणउ विचारू पाच्छइ भरिन परतभंडारु ॥ १४ ॥ उप्पलदलउप्परि जिम नीरु ते सउं चंचलु जीव सरीरु । धणु कणु रइणु सइणु तिम सहू दीसइ धम्मु एकु धर रहू ॥ १५ ॥ उपरि देखि दैव न हु हाथु तेरहि तिहुयणि कोइ न सनाथु । नासीउ पइसिजान जिनसरणि जिम न पामीअह जंमणमरणि ॥१६॥ रिडिहितणउ लाभु इम लेजि सातिहि षेति वीतु वावेजि । उपर सिंचे भावनानीरि वगसरु नोही जिम ताहरइ सीरि ॥ १७ ॥ रीणु दीणु ते चहुगति भमइ जे जिन वीतरागु नवि नमइ । नोही काइ धरमवासना ते नही जाइं मुक्तिआसना ॥ १८ ॥ लिषावीइ सुतु सीडंतु तेह लाभ नवि लाभइ अंतु । ज्ञानतणउ गुण एवडु कोइ वीतराग तु ज्ञानलगु होइ ॥ १९॥ लीलअमत संसारु तरेसि जइ जीव जिनधमु परुहुणु लेसि । सुगुरनी जाम विलगीउ करी जान जीव भवसाइरु तरी ॥२०॥ एकह परि पामिसि भवपारु जइ समिकत कर अंगीकारु । वीरनाथु कहइ आगमि तोइ विणु समिकत सिद्धि नवि होइ ॥२१॥ ए अ वचनु जोइ जिणवरतणुं तहि ऊपमा किसी हर्ष भणउं । जिणहं वइण न ऊपम काइ त्रिभुवनतणी सुद्धि जेह माहि ॥ २२ ॥
ओघहं पडीउ पापु जे करिसि तउ संसारु अनंतउ फिरिसि । जोईउ पणु सिद्धत विचारु करिसि धम्मु तउ पामिसि पारु ॥ २३ ॥
ओषधु करे जीव जिनि भणिउं अछइ दुषु अठकरमहतणउं । बाहिजि ओषदि काई तु थाइ धरमोषधविणु दुषु न जाइ ॥२४॥ अंतु न लाभई इह संसार कांइ तु जीव हीइ न विचार।। एक जु धमु करे सपाइ लेउ मेल्हइ सिवनअरीमाहि ॥ २५॥
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