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________________ ७४ प्राचीनगूर्जरकाव्यसङ्ग्रहः तांव कि लब्भहिं चिंतिया हियडा ऊणत्ताण ॥ ३७॥ डुंगरडा अधो फरिं लग्गउ सीयलि वाउ । हूय पुणं नवदेहडी अंमुलि कियउ पसाऊ ॥ ३८ ॥ चर्चरिका समाप्ता मातृकाचउपइ त्रिभुवनसरणु सुमरि जगनाहु जिम फिट्टइ भववं दुहदाहु । जिणि अरि आठ करम निर्दलीय नमो जिन जिम भवि नावऊ वलिय ॥१॥ आंचली-सवि अरिहंत नमिवि सिद्ध सूरि उज्झावय साहू गुणभूरि । माईयबावनअक्षरसार चउपईबंधि पढिउं सुविचारु ॥१॥ भले भणेविणु भणीअइ भलउं तिहूयणमाहि सारु एतलडं । जिनु जिनवचनु जगह आधारु इतीउ मूकिउ अवरु अस्सारु ॥२॥ मीडउं पडिउं भवनागमा जउ समिकत्ति लीणु आतमा । जिनह वयणि करिजे निहु ठाउ सृदय रहवि तिहुयणनाहु ॥ ३ ॥ लीह म लंघिसि जिणवरिभणी जो रिधि वंच्छह सिवसुहतणी। चहुंगति फीटइ फेरउ वडउ पाच्छइ जाइउ सिवगढि चडउ ॥४॥ लीहं बीजी बे उपरि करे देवु गुरु हीयडइ संभरे । क्षणु एकू मन करिसि प्रमादु जिम तुम्हि पामउ मुक्तिसवादु ॥५॥ ॐकारि सुमरि अरिहंतु जो अठकमहं कालु कियंतु। अनु सिवसुकतणउ दातारु मनह म मेल्हिसि तिहूयणसारु ॥६॥ नव निहाण ते पामइंतिम जीह जिणवयणु हियइ परिणमइ । सिवसंपत्ति तीहहकडी जीह जिणआण हियइंसउं जडी ॥७॥ मनु चंचलु जे अविचलु करई जिणह आण सिरऊपरि धरई । हणइं कसाय इंदीय संवरई ते सिवनयरि सुखि संचरई ॥८॥ सिद्धउं काजु सहू तीहतगउं जेहि जीवि कीधउं जिणवरभणिउं । छेदिउ आठकरमनी वेलि गया मुक्ति दुई पेलावेलि ॥९॥ बंधई पडिया दीह मन गमउ अप्पारामि जिणवरिस रमउ। भवह तापु नवि लागई अंगि उदु बहुफलु पामउ सिवसंगि ॥१०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003980
Book TitlePrachin Gurjar Kavyasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC D Dalal
PublisherCentral Library
Publication Year1920
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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