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प्राचीनगूर्जरकाव्यसङ्ग्रहः तांव कि लब्भहिं चिंतिया हियडा ऊणत्ताण ॥ ३७॥ डुंगरडा अधो फरिं लग्गउ सीयलि वाउ । हूय पुणं नवदेहडी अंमुलि कियउ पसाऊ ॥ ३८ ॥
चर्चरिका समाप्ता
मातृकाचउपइ
त्रिभुवनसरणु सुमरि जगनाहु जिम फिट्टइ भववं दुहदाहु । जिणि अरि आठ करम निर्दलीय नमो जिन जिम भवि नावऊ वलिय ॥१॥ आंचली-सवि अरिहंत नमिवि सिद्ध सूरि उज्झावय साहू गुणभूरि ।
माईयबावनअक्षरसार चउपईबंधि पढिउं सुविचारु ॥१॥ भले भणेविणु भणीअइ भलउं तिहूयणमाहि सारु एतलडं । जिनु जिनवचनु जगह आधारु इतीउ मूकिउ अवरु अस्सारु ॥२॥ मीडउं पडिउं भवनागमा जउ समिकत्ति लीणु आतमा । जिनह वयणि करिजे निहु ठाउ सृदय रहवि तिहुयणनाहु ॥ ३ ॥ लीह म लंघिसि जिणवरिभणी जो रिधि वंच्छह सिवसुहतणी। चहुंगति फीटइ फेरउ वडउ पाच्छइ जाइउ सिवगढि चडउ ॥४॥ लीहं बीजी बे उपरि करे देवु गुरु हीयडइ संभरे । क्षणु एकू मन करिसि प्रमादु जिम तुम्हि पामउ मुक्तिसवादु ॥५॥ ॐकारि सुमरि अरिहंतु जो अठकमहं कालु कियंतु। अनु सिवसुकतणउ दातारु मनह म मेल्हिसि तिहूयणसारु ॥६॥ नव निहाण ते पामइंतिम जीह जिणवयणु हियइ परिणमइ । सिवसंपत्ति तीहहकडी जीह जिणआण हियइंसउं जडी ॥७॥ मनु चंचलु जे अविचलु करई जिणह आण सिरऊपरि धरई । हणइं कसाय इंदीय संवरई ते सिवनयरि सुखि संचरई ॥८॥ सिद्धउं काजु सहू तीहतगउं जेहि जीवि कीधउं जिणवरभणिउं । छेदिउ आठकरमनी वेलि गया मुक्ति दुई पेलावेलि ॥९॥ बंधई पडिया दीह मन गमउ अप्पारामि जिणवरिस रमउ। भवह तापु नवि लागई अंगि उदु बहुफलु पामउ सिवसंगि ॥१०॥
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