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प्राचीनगूर्जर काव्यसङ्ग्रहः
देवि
वर संमिकविउ अरि जिय सग्गि निरोहि ॥ ३६ ॥ वि हसंतु वि जोइयए निचलु झाणु धरेवि ।
ता दीसह जिम जगतगुरु सहजाणंदु सु देउ ॥ ३७ ॥ तडं एकल्लउ सहसि जिय खाएसइ परिवारु । विहg विहंचि लेइ जणु पाव न विहचणहारु ॥ ३८ ॥ थक्केसइ धणु सयणु जणु कोइ न सरिसउ जाए ।
पावु पुन्नु तं अज्जियए तं परि अग्ग थाइ ॥ ३९ ॥ देइ देइ मन आलस करि महुरालाविहि दाणु । चलिये देह हिव विहवसिण करि सफलउ अप्पाणु ॥ ४० ॥ धर उपज्जइ केवि नर परउवयारसमत्थ ।
कइ देइ के कम्मवसि जणजण उड्डइ हत्थ ॥ ४१ ॥ नइ वहमाणी सघणजल सुक्कइ इयर तलाय । दायर वह रिडिडी मग्गण निधण थाइ ॥ ४२ ॥ पढिउ गुणिउ घणु तवु तविउ संजमु किउ चिरकालु । जइ कसाय नवि वसि करसि ता सह इंदियालु ॥ ४३ ॥ फलु दिरिकउ तरवरतणउं दिट्ठि म घल्लिसि बाल । तं नवि पाविसि पुन्नविणु छड्डसि पारी लाल ॥ ४४ ॥ बलि जिउं तह सुहगुरुह जा जगु मारगि लाइ । उम्मग्गह दंसणि गमणि जणु पुणु पुहवि न माइ ॥ ४५ ॥ भरसरि आयरिसघरे उप्पन्नउं वरनाणु ।
भावण सव्वहि अग्गलि य तपु संजमु अपमाणु ॥ ४६ ॥ मयणु न खीणउ जातणि ते नवि बंभच्चारि । मयणविहूणह संजमि लुंचणि छारि न दोरि ॥ ४७ ॥ जसि धवलिउ जगु जेहि मुणि नाउं लिहाविउ चंदि । कम्म हणवि जे सिद्धि गय ताह चलण नितु वंदि ॥ ४८ ॥ रे वाहा मग्गेण वहि मा उम्मूलि पलास ।
कल्हे जलहरु थक्किए कयण पराई आस ॥ ४९ ॥ लइ वयभरु परिहरवि घरु भंजिवि भवनियलाई । जाव न पहुच्चइ तुज्झतणि जमरावस्स दलाई ॥ ५० ॥ वयणु न जंपर दीणु कसु जं भावइ तं थाउ
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