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________________ प्राचीनगूर्जरकाव्यसङ्ग्रहः अणहंता पयडेसि तुहु दोस पराया मूढ । नियदोसण पव्वयसरिस ते सवि कारिस गूढ ॥ ७ ॥ आइ किजिय जिणधम्मु करि सुत्थइ संबलु लेवि । अग्गइ किंपि न पामिसए अत्थइ भरिया गेह ॥ ८॥ इण भवि लद्धी रिद्धि पइ परभवि केव लहेसि । अच्छिसि तिणि धणि मोहियउ जइ न सुपत्तह देसि ॥९॥ ईसरु देखिउ कोइ नरु नीधिणु मणि दृमेइ । एउ न जाणइ मूढ जिउ जणु वावियउं लुणेइ ॥ १०॥ उप्पलदलजलबिंदु जिव तिव चंचल तणु लच्छि । धणु देखता जाइसए दइ मन मेलत अच्छि ॥ ११ ॥ ऊयरु जउ भरिवर्ड कुपुरिसह तो भरियउ भंडारु । इकि जीव पुन्निहि पवर लकह कोडि आधार ॥ १२ ॥ रिणि राउलि जलि जलणि घरि तकरि धणु घणु जाइ । धम्मकजि जउ मग्गियए ताव परमुहु थाइ ॥ १३ ॥ . रीस करंता जीव रीह अच्छइ अवगुण तिन्नि । अप्पउं ताविसि पर तवसि परतह हाणि करेसो ॥ १४ ॥ लिहियउं लब्भइ सिरतणउं जइ चालियइ समुदु । लच्छिहि केसवु संगहिउ तिणि विसि घारिउ रुद्द ॥ १५ ॥ लीलइ धम्मु जु होइंसए सेवंता जिणनाहु । तं नवि मिच्छत्तिहि सहिउ जइ तपु करिसि अबाहु ॥ १६ ॥ एकहि ठावि वसंतडा एवड अंतर होइ। अहिडंकिउ महियलु मरए मणि जीवइ सहु कोइ ॥ १७ ॥ ऐ आणाइ समतण जीवन बूझइ हेव । हिंडइ रोसिं पूरिया न करइ उपसमसेव ॥ १८॥ ओदउ तहु लोभहतणउ जीव न फिट्टइ निच्चु । अहनिसि तेण भमाडियउ न गणइ किच्चु अकिच्चु ॥ १९॥ औसरि नेह अभिग्ग पुणु पिच्छिस हिय भजंति । चंदूपल किरणेहि तहि दूरठिया विहसंति ॥ २० ॥ अंधउ अंधइ ताणियए कवणु कहेसइ मग्गु । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003980
Book TitlePrachin Gurjar Kavyasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC D Dalal
PublisherCentral Library
Publication Year1920
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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