SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीनगूर्जरकाव्यसङ्ग्रहः ईइ सातइ क्षेत्र इम बोलीया आगमअणुसारे । पुण तुम्हे वावीयं भलीयपरि वित्त आपणरे ॥ ११३ ॥ न्यायनीति वितु लिडं तीउ थानकि वावे । जिणसासणि वेवीतु कुलि कमल सु चडावे । संघसमुदाइ सहू कोइ तीरथ वंदावे ।। देवजात्र गुरुजात्र करीइ तउ भलउ भणावे ॥ ११४ ॥ इम वितु सु वेवउ धम्म सु संचउ अप्पं जीव म वंचसुउ । वली न लहिसउ प्रस्तावु एसउ करउ सफलु भव माणसउ ॥ ११५ ॥ सातक्षेत्र इम बोलिया पुण एक कहीसिइ । कर जोडी श्रीसंघपासि अविणउ मागीसइ। कांईउ ऊणं आग बोलिउं उत्पन्न । ते बोल्या मिच्छा दुकडं श्रीसंघविदीतुं ॥ ११६ ॥ मूं मूरष तोइ ए कुण मात्र पुण सुगुरुपसाऊ । अनइ ज त्रिभुवनसामि वसइ हियडइ जगनाहो । तीणि प्रमाणिइ सातक्षेत्र इम कीधऊ रासो। श्रीसंघु दुरियह अपहरउ सामी जिणपासो ॥ ११७ ॥ संवत तेरसत्तावीसए माहमसवाडइ । गुरुवारि आवी य दसमि पहिलइ पखवाडइ । तहि पूरु हूऊ रासु सिव सुख निहाणूं। जिण चउवीसइ भवीयणह करिसिइ कल्याणूं ॥ ११८॥ जां सिसि रवि गयणंगणिहि ऊगइ महिमंडलि। ता वरतउ एउ रासु भविय जिणसासणि । निम्मल ज ग्रह नक्षत्र तारिका व्यापहं । गयवंतु श्रीसंघ अनइ जिणसासणु ॥ ११९ ॥ . इति सप्तक्षेत्ररासः समाप्तः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003980
Book TitlePrachin Gurjar Kavyasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC D Dalal
PublisherCentral Library
Publication Year1920
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy