________________
सप्तक्षेत्रिरासु वाछिलनी परि एक कीसउ परि हुअइ असंख । विधिमानु फरसइ सहू कोइ नरनारी दुःख ॥ १०५ ॥ वाछिलनी परि एकजीभ हउं कहि न सकउं । एकह वारु सारु सकू तुम्ह कहीउ अज मू किउं । जं जं कीजइ कुणबकाजि अतिभलां भलेरां । ता कीजइ साहमिय प्रति अजी अधिकेरां ॥ १०६ ॥ कीधे काजे कुटंबतणे अतिघणउ संसारो। जं कीजइ साहमिअकेरउ काजि ते परत भंडारो । इणपरि वाछिल श्रावकह कीजइ सुरचंगू। हव ते कहीइसिइ जिणभवणि वाछिल अंतरंगू ॥ १०७॥ जिणपरि लोग समाराअए सवि साहमिअकेरु । थाकइ जिम संसारमझि वलि वलि एउ फेरु। कीजइ श्रावकश्राविकारहि वरपोषधशाल। जीछे करिसिइ धरमध्यान तु हरषि सवि काले ॥ १०८॥ षडुजीवरक्षा सवि काल तीछे दीसंती । समकितसिउं बार य व्रत जीव अनेकिइ लहंती। प्रतिमा नीम अभिग्रह संपज्जइ तिणि हाट । अनेकि सुकृत ऊपजइ कुहियाकडेवरमाट ॥ १०९ ॥ तीछे सुगुरु वषाणु करइ आगमभंडार । सहू समाधियइ सांभलइ व्यूथ नरनारे । थापनाचार्य चउकीवटउ सिंहासण कीजइ । नउकरवाली चिरवला महुपत्ती मूकीजइ ॥ ११० ॥ संथारा ऊतरउट पाटि कीजइ पुंछणा। करे पोसाल पाटला अनइ दंडाछणा । काजामेलणी य पउंजणी य काजाऊधरणी। पौषधसालहतणइ ठामि ए काजह करणी ॥ १११॥ कीजइ कमली ठवणी य वाचीजइ सिद्धांतु । ज्ञान पढ़ता जीव तीहा कर्मक्षय अनंतु । जइ ज्ञान पडिलेहवा मोरवीछी य छे तोई। दीसई आखर पडवडा अनइ जइणा होई ॥ ११२ ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org