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सप्तक्षेत्र
वराप टली वितु वाविसि सारु ऊगिसि खडसलु काइ कतवारु । जउ भलक्षेत्रि वरापहं वाविसि तर इकुगुणइ अनंतगुणं पाविसि ॥ ८४ ॥ ए भलं क्षेत्रं जिनवरि कहिया वावे धम्मी भावणसहिया ।
तउ सीचे अनुमोदनापाणी जिम हुइ सफली गय निरुवाणी ॥ ८५ ॥ ईणपरि वावीजइ मुनिखेनु दीजहं भक्त पानु सूझंतू ।
विद्यादानुं जउ दीजई सारु जिणु भणइ तेह पुन्य नहीं पारु ॥ ८६ ॥ ओषधआदि सहु सुझत तं तं दीजई नियधरिहुंतडं । अनि काई मुनि उपगरइ तं झतूं वहरडं करइ ॥ ८७ ॥ जं जं मुनि जोअइ सुझंतरं तं तं दीजई नियधरुहुंतडं । गुरु आवता कीजइ अभिगमणउं दीजइ भक्ति थोभवंदन ॥ ८८ ॥ विनउ वेयावचु अनी विशेषित कीजइ भवीउ महामुनि देखीउ । पर्युपास्ति तही की जइ घणी य जिम जिम जिनवरि आगमि भणी ॥ ८९ ॥ एह ज परि श्रमणी जाणेची करउं भक्ति तुम्हि हरिख धरेवी । जे सूझ महामुनि दीजइ तं तं श्रमणी कीजइ ॥ ९० ॥ आगइ तो पूर्विहि सुणीजइ धनु धनु सारथवाह कहीजइ । घीउ विहिराविउ जिणि मुणिंदर तिणि फलि हूयउ पढम जिणंदू ॥ ९१ ॥ efaणार नयरि श्रेयंसिहि पाराविउ रिषुभु इक्षुरसिहि । तिणि फलि तिण भवि केवलु ज्ञानु दिइन भविकु मुनि इणपरि दानु ॥९२॥ वीर जिणेसर छठ्ठा मास चंदण पारावर कोमास ।
तीणि दानि शिव संपति पामी दियउ दानु तुम्हि अनुव्रत धामी ॥ ९३॥ जोइन संगमि कीउं मुनि पारावीउ खंड खीरु घीउ ।
तिणि फलि तु सर्वार्थसिद्धि पामी पाछइ होसिह सिवसुहगामी ॥ ९४ ॥ इउ भल्लउ खेतू बावउ वितू अतिफलीअइ संवेगचित्तू । सिवसुह संपत्ती देइन भत्ति सामिसाल आगमि भणित्ति ॥ ९५ ॥ हिव तोइ श्रावकतणउं क्षेत्तु भवी कहीसह । जउ जिणसासणतणी भूमि अतिभलउं फलीसिह । किस सुश्रावक जाणिवउ जिणसासणभिंतरि । श्रीवीतरागतणी य आण मानइ सिरऊपरि ॥ ९६ ॥ समकित मूल बार वरत पालइ नरनारि । frees feast वीतरागु एक जि सुरसारु ।
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