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सप्तक्षेत्र रासु
अनि अ ज काई कोइ ठामु मूं हुई वीसरियउं ।
ते तुम्हि भविय करावि जि अ सहूइ सांभरियउं ॥ ५४ ॥ उछवुं जिनभुवयणि हरषि नियमणि करइ संधु जयवंतु । नितु हिव त्रीज क्षेत्र कहिसु पवित्तू सुणउ जीव जे जिणभणितृ ॥५५॥ त्रीज क्षेत्र सु संभलउ ए वरलोयणे जं भणिउं वीयराइ । गुणगंभीर सो जिणह वयणु मृगलोयणे तसु नवि ऊपम काइ ॥ ५६ ॥ वचन इकेका मूल नही वरलोयणे जं बोलइ भगवंतु । त्रिहु भुवणे चूडामणिय मृगलोयणे सह जाणइ अरिहंतु ॥ ५७ ॥ पढ कवण व्याप जिनवचनतणउ वर० बुज्झइ लोकु अलोकु । सउ जि सिद्धंत ज सलहीअइ ए मृग० देअइ सिद्धिसंजोगु ॥ ५८ ॥ गणधर करइ जं पुव्वधर वर० सुयकेवलिहि करंतु । दसपूरवधर जं करइ मृग० तं भणियउ यह सिडिंतु ॥ ५९ ॥ त्रिभुवणहतण जाणियइ वर० आगममाहि विचारु । चउदपूरव इग्यार अंग मृग० करइ गोतमु सुतिहारु ॥ ६० ॥ सूत्रहार तहि निउछणा ए वर० जिणि जाणिउ एउ सूत्र । त्रिपदी आपी य वीरनाथिइ मृग० आघउं गोतम वृतु ॥ ६१ ॥ केवलनाण वुच्छिति गयउं वर० गया सवि पूरवधर । जे हुंता गुरु प्रज्ञघणउं मृग० गया सु ते मुनिवरा ॥ ६२ ॥ अल्पप्रज्ञह नवि थाहरए वर० जिणवयणुं निरुपमु । ती कारणि श्रीसंघ मिलीय मृग० पोथे ठवीउ आगमु ॥ ६३ ॥ भक्षाभक्ष सो बुझिए वर० अन्नी गम्मागंमु । कृत्याकृत्य परीछियए मृग० जाणीयइ धर्म्माध ॥ ६४ ॥ धन जीवी लाहुउ लिउ ए वर० बुज्झियह एहु विचारु । श्रीसिद्धंतु लिखावियए मृग० जोउ त्रिभुवणह सारु ॥ ६५ ॥ त्रीज क्षेत्र इस वावीयए वर० चित्ति संवेगु धरेउ । date वित्त लिखावियए मृग० श्रीसिद्धान्त जएउ ॥ ६६ ॥ बाहूदंड पोथा कराउए वर० पोथीय नीकी य तोइ । ज्ञानलाइ सवि लाभ हुइ मृग० एह विचार तूं जोइ ॥ ६७ ॥ पाठां दोरी वीटणां वर० वर सिद्धांतह भत्ति । वानीदोरा ऊतरीय मृगलोयणे पोथीय पोथीय सत्ति ॥ ६८ ॥
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