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प्राचीनगूर्जर काव्यसङ्ग्रहः
तिणि वेलां बसणां पाटि जोइ पाटल्ला । चउकीवटि बइसंति सुगुरु त भावइ भल्ला ॥ ४७ ॥ बइसइ सहूइ श्रमण संघ सावय गुणवंता । जोयइ उच्छवु जिनह भुवणि मनि हरष घरंता । तीछे तालारस पडइ बहु भाट पढ़ता । अनइ लकुटारस जोइई खेला नाचता ॥ ४८ ॥ सविह सरीषा सिणगार सवि तेवड तेवडा । नाचइ धामीय रंभरे तर भावइ रूडा । सुललित वाणी मधुरि सादि जिणगुण गायंता । तालमानु छंद्गीत मेलु वार्जित्र वाजंता ॥ ४९ ॥ तिविलां झालरि भेरु करडि कंसालां वाजई । पंचशब्द मंगलीक हेतु जिणभुवणई छाजइ । पंचशब्द वाजंति भाटु अंबर बहिरंती । इणपरि उच्छव जिणभुवणि श्रीसंधु करंतर ॥ ५० ॥ तर आरती परुगुणउं कीउं आरती पटऊपरि । ऊठिउ संघपति विधिहि सहिउ तउ साहीउ बिहुकरि । नीर लुण उतारियए कुसुम ऊतारी । संघपति ऊठी सेसि भरई सहहत्थिहि माडी । संघपति आरती लिया हुइ जउ वार वडेरी । आरती जोगी थांभली अ आणउ गरुएरी ॥ ५१ ॥ पाछइ जिणगुण गाइ पढइ सहू पालउ लोक । श्रीसंधु तीह अ दानु दियई जीह जेसा जोगू । ऊतारी आरतीअ तोइ संघपति सइ हरखिउ । रोमांची सारीरु तहि जिणदंसणु देखीउ ॥ ५२ ॥ मंगलीक ऊतारीयए घंट वाजइ सरूई ।
श्रीसंधु करइ प्रभावना जिणसासणि गरुडं । तउ विधि वांदियउ वीतराग श्रीसंधु ऊतारीउ । इणपरि सुकृतभंडारु तोड़ भव्यजीविहि भरियउ ॥ ५३ ॥ जे जिन भुवणतणां कृत्य ईह छेडइ कहिया । ते गृहचैत्य करावियइ सविशेषिहि सहिया ।
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