________________
४९
सप्तक्षेत्रिरासु कवणु रूप वीतरागतणु जोइ कवणु विशेषु । अठ प्रतिहारि ज जिणहतणइ वृक्ष होइ अशोकू ॥ २४॥ भामंडलुसुरकुसुमवृष्टिसीहासणुछत्तू । भेरिचमरदेवंडुणिहिण जोइ कवणु प्रभुत्तू । ए थिति एसी वीतराग मेल्ही अवर न होई । सूरादिक जिनसेव करई नवि सगलइं जोई ॥ २५ ॥ तउ जिनजीर्णउडारु भवि जीव विशेषिहि करीयइ । भागउ लागउ जिणह भुवणि तेउ तोइ समुद्धरियइ । लीपिउ धउलीउ भीगु देइ चीत्रामु लिषीजइ । इणपरि भुयणु समारीय जन्मह फलु लीजह ॥ २६ ॥ अनीउ जु काइं किंपि ठामु जिणभुवण सीदाइ । तं निश्चिई करावीयए बहुफलु बोलाइ। आपणि सामिउ वीतरागु ईणपरि भणेइ । जीर्णोद्धारहतणा पुण्य तेह अंत न होइ ॥ २७ ॥ बीजं खेत्रु सुजिनह बिंबु ते इहां विचारो। मणिमय रयण सुवर्णमए बिंब रूपम कारो। हिव जिनभुवणह गृहचैत्यदेवरा छ कहीसइ । कीजइ कणयभिंगार कलस जे नीर भरीसइ ॥ २८ ॥ तउ सीलमइ करावीयइ जिनभवन ठवीजइ । पारइ पीतलमइ भलां ग्रिहचैति पूजीजइ । घरि देवालाई कराविय नीकाइ मणोहर । जीछे तिहुयणसरण सामि पूजीजइ जिणवर ॥ २९ ॥ सुगंधि नीरि सनाथु करइ जिण जीणि आणंदिहि । ते संसारह कसमलह नवि छीपइ बिंदिय । अंगलूहणे सूक्ष्म करउ सुफरां बहुमूलां। नियनियसक्ति करावियइ कीजे देवंगतूलां ॥ ३० ॥ कीजइ ओरसु ख्यडा सिरखंड घसेवा । कपूरवटे वाटीइ कपूर जिनस्वीमुखि देवा। मूंकइ जिणभुयणिहि धोति अतिनीकी धूपी । वालाकुंची पूंजणीइ पीगाणी कूपी ॥ ३१ ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org