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प्राचीनगूर्जरकाव्यसङ्ग्रहः देसावगासी दसमुं व्रतु नथी मूलु।
पोषधव्रतु इग्यारमउ संजमसमलूल ॥ १५ ॥ व्रतु बारमउं अतिथिसंविभागुउ तोइ मुकतिनयर न न मागो। जे ईणइ मारगि चालइ संसारे धनु सक्रियारथ ते नरनारे ॥ १६ ॥
समकितमूल व्रतु बारइ गहियधरमि पालेवउ ।
सप्तक्षेत्रि जिनभणिया तिह वित्तु वावेवउ ॥ १७॥ सप्तक्षेत्रि जिन कहिया महामुनि वितु वावेजिउ विवहपरे । जिनवचनु आराधीउ अवक्रमु साधिउ लहइ पारु संसारुसरे ॥ १८॥
सप्तक्षेत्रि जिनसासणिहि सघली कहीजई। अथिरु रिधि धनु द्रव्यु बीजउ तहि जि वावीजइ । तेहि क्षेत्रि वावेत्रणा थानकि लाभइ देवलोको । कणनी थाहरु मुक्तिफलो पामउ निसंदेहो ॥ १९॥ पहिल क्षेत्र सु जिणह भुवण करावउ चंगू। जीछे महिमा करइ सहु श्रीचरविहसंघू । मूलगभारउगूढमंडपुछकुचउकीसहिउ । आगइ कीजइ रंगमंडपु जो पुस्तकि कहिउ ॥ २० ॥ तहिं आतरइ बलामणु कीजइ आधेरउ । जिम जिनभवनह नालिमाहि दीसइ नीकेरउं । उत्तंगतोरणु थंभथोरु घांटु अतिनीकउ । कडीयइ नानाविधि रूपि सारु चारु तहि नीसलु जडिउ ॥ २१ ॥ बिहु पक्ष फरती देहरी कीजइ अतिरूडी। ठवीजइ मूर्ति जिनहतणी माहि तेवड तेवडी। कणयकलस दंड घांटीई धज पूरीय कियजइ । छोहपकतप्रासादु भलउ जीव नीपाइजइ ॥२२॥ तहि जिनबारिं कमाड भलां कीजइ अतिसुविघट्ट । सारूआर दृढ प्रागू ए जो आवइ संपुट । तालां कूची सांकली अतिनीसल कीजइ। जउ आथमणह जाइ सूर तउ संपुट दीजइ ॥ २३ ॥ अतिसउ जिणह भुयणु किरि अमरविमाणु । दीसइ मूरति वीतराग माहि लिहुयणुभाणु ।
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