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"समालकहाण यछप्पय
तपजपविण सो पत्त नरगि त्रीजइ दुहतत्तउ ।
करवि सूर दुहचूर सग्गि सत्तमह स पत्तउ ससि रडइ सुरसुरअग्गलिहिं तणु तच्छिय दुह दिकवउ ।
सो भइ जीव विणु तणु दहिहिं नरयदुक किम ररिकव ॥ ७० ॥ सुग्गइमग्गपईव नाण जे दियई निरुप्पम ।
तिहं गुरु किं पि अदेय नत्थि जगमज्झि जगुत्तम । दिउ जेम पुलिंद सिवगजरकह नियलोयण । तिण सरिसउं सुर वत्त करइ भत्तह दिय चोयण । केवलई दाणि तूसइ न गुरु अंतरंगभत्तिहिं वरइ । तिणि कारण बिहुपरि करि विणय जिम बाहिरि तिम अंतरइ ॥ ७१ ॥ अंबचोर चंडाल चडिउ अभयडकरि कंपइ |
दय नामिणी सुविज मज्झ इम सेणिउ जंपइ । विणयविवज्जिय विज्जकज्ज करिवइ नवि जग्गइ । सिंहासणि बसारि भारि गुरु करि सो मग्गइ । ओ कहइ विज्ज ओ लहइ फल बिहुह कज्ज तरकणि सरिउ ।
इण कारणि जिणसासणि विषय सुगुरु सीस अणुक्कमि करिउ ॥ ७२॥
दगलूर तिदंडि तामलित्ती पुरि अच्छइ । नापितपास सु विज्ज लेवि देसंतरि गच्छइ । महिमा मोहिम पत्त दंड गयणंगणि रहियउ ।
पुच्छिउ नरवरि जाम ताम सच्चउ नवि कहियउ ।
गुरुलोपि कोपि विजा गई गयणदंड गडयडि पडिउ ।
लज्जियउ लोकि हसिउ सयल इम सु नाणनिन्हवि नडिउ ॥ ७३ ॥ बंभण एक अनेककूडकवडाइ निरुत्तर | उज्जेणिहिं कढिय देसि चम्मारिस पत्र । त्रिहुं गामहं विच्चालि करइ तप वेसि त्रिदंडी । भगतलोकघरसार मुसइ निसि सु जि पाखंडी ।
अहच डिउ हत्थि नरवरतणइ नयण कड्डि नडियौ घणउ । बहु झुर अति सोच सुचिर निंदह नियकुडरकणउ ॥ ७४ ॥ रंग वरदेव कुरूपहिं पहु वंदइ ।
छींक करइ जब वीर ताम मरि कहि अभिनंदइ ।
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