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प्राचीनगूर्जरीकाव्यसङ्ग्रहः नयरखालि उप्पन्न जरक बहु दुक निहालइ ।
सुविहियजणपडिबोहकजि नियजीह दिखालइ । जिप्पह मुणिंद रसणिंदियह अणजित्तइ एरिसु हुउ । जग्गह जि जोग जुगतिहिं सदा म म म मोहनिद्रां सुउ ॥ ६५ ॥ गिरिसुय ग्रहिउ पुलिंदि पुप्फसुय तवसी सेवइ । सुयडा अडवीमज्झि अछइ पक्कोदर बेवइ । इक्क भणइ लिउ मारि अवर पुण विणय पयासह ।
अंतरसंगविसेसि दोस गुण नरनइपासइ । इम जाणि निगुणसंगति तिजउ सगुणसंग अणुदिण करउ । झगमगइ जेम जगमज्झि जस भवसमुद्द तरकणि तरउ ॥६६॥ सिरिथावच्चापुत्तसूरि सुकसूरि अणुक्कमि । सेलगसूरि पमायपंकि पडियउ अइदुद्दमि । गया सीस सवि छंडि एक पंथग मुणि रहिउ ।
खामंतई पगि लागि पव्ववासरि तिणि कहियउ । मियमहुरवयणि सुनिपुणपणइ ठविउ सुडसंजमि स गुरु । सो सूरि पुण वि चारित्त वरि सित्तुंजय सिद्धउ सधर ॥ ६७॥
सेणियनंदण नंदिसेण बारस संवच्छर। वीरसीस वय छंडि वेस धरि वसइ समच्छर। दस प्रतिबोध्याविणु न लेइ आहार निरंतर ।
इक्क न बुज्झइ भणइ वेस दसमा तुम्हि सुंदर । इण वेसवयणि पुण वेसधर चरण वरवि सुर संपजइ । इय जस्स सत्ति देसुणतणी अहह सो वि संजम तिजइ ॥ ६८॥
वरससहस तव कट्ठ करिय कंडरिय न सुद्धउ । अंति दुठ्ठपरिणाम कामवश नरयनिबद्धउ । अचिरकालि परिपालि सुद्ध संजम संपत्तउ । पुंडरीक सव्वसिद्धि सुहबुद्धिनिरुत्तउ । बहु दुक सहवि नवि लड सुह अप्प दुरिक बहुसुख लहिउ । बिहु बंधव एवड अंतरउ भावभेदि भगवति कहिउ ॥ ६९॥
नयरि कुसुमपुरि राय भाय दुइ ससि सूरप्पह । ससी न मन्नइ धम्म रम्म मन्नइ विसयासुह ।
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