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________________ १७ उवएसमालकहाणयछप्पय विहरंतउ तिहिं पत्त दुट्टसोनारह मंदिरि । क्रौंचि कणय जव खद्ध वद्ध बहउ तिणि तस सिरि। दृढघाइ दिष्टि दुइ नीकलीय ढलिय धरणि निच्चलु भयउ । तस पंखिप्राण रक्षा करी धरी ध्यान सिद्धिहि गयउ ॥ ३० ॥ धणगिरिघरणिसुनंदउयरि जायउ जाईसर । छम्मासिउ पिउपासि वयर संपत्तउ वयधर । तस समीवि मुणिकजि गुरिहिं वायण अणुजाणीय । धन्न सीहगिरिसीस जेहिं मन्निय इय वाणीय । जे माणगण मनि परिहरी सुगुरुवयण इम सद्दहइ । ते सुद्ध साधु सुकुलीण सविगुणनिहाण गुरुयडि लहई ॥ ३१ ॥ संगमसूरि गिलाण वासि संजमविहि रकइ । धम्मच्छलि तस सीस दत्त गुरुदोस निरिकइ । खित्तविहार सविन पिंड अंगुलि दिप्पंतिय । नित्यवास नितु सरसु असणु दीवय मणि चिंतिय । मन्नंतउ मुनि अप्पउं सगुण निगुण भणवि गुरु परिभवइ । घोरंधयार घण सद्द करि सम्मदिठि सुर सिकवइ ॥ ३२॥ वडमाण विहरंत नयरि सावस्थिहिं आवई । गोसालउ चउसाल आप तित्थयर भणावइ । मंखलिपुत्तसरुव कहइ पहु पुच्छिउ सीसिहिं । जिणवरसंमुह मुक्क तेउलेसा तिणि रीसिहिं । तं पिरिक सुगुरुपरिभव असह सुनकत्त मुनि विचि थयउ । तिणि तेजि दद् आराधना करवि सग्गि अच्युति गयउ ॥ ३३ ॥ नाहियवादि नरिंद नयरि सेतंबी पएसी। पाससीस विहरंत पत्त तहिं गणहर केसी। नरयगमणि इकचित्त सुगुरुवयणिहिं पडिबोहिउ । सावयधम्म सुरम्म करवि तिणि अप्पउं सोहिउं । लहुकालि काल करि सु जि सरिउ सूरिआभसुविमाणि सुर । इम दुरियदुक दृरिहिं हणी सयल सुक साधइ सुगुरु ॥ ३४॥ तुरमिणिपुरीनरिंद दत्त बंभणकुलि बहुबल। माउलकालिगसारिपामि पुच्छद जन्नह फल । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003980
Book TitlePrachin Gurjar Kavyasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC D Dalal
PublisherCentral Library
Publication Year1920
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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