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प्राचीनगूर्जरकाव्यसङ्ग्रहः कणयनवाणुकोडि छोडि व्रत वंछइ सुहमणि । तं पिकवि तसु वयणि सयल पडिबुज्झइ तस्कणि । सगवीसअधिकसयपंचसिउं रायग्गिहि संजम लयउ। सो दूसमि पंचमगणहरह सीस चरिमकेवलि भयउ ॥ १५॥ सुंसुमरागिहिं रत्त पत्त रायग्गिहिनयरिहिं । दास चिलाइपुत्त जुत्त धणघरि बहुचोरिहिं । कुंयरि करीय करि नट्ट दुट्ट अडविहिं अणुसरिउ ।
वाहर पत्तउ पुष्टि सिठि पुत्तिहिं परिवरिउ । सो रिकि दिक्षि बिहु अक्षरिहिं खग्गसीस छंडइ करम । कीडियहं कठि अढइ दिवसि सहरसारि दीसइ परम ॥ १६ ॥ जायवपुत्त जिणिंदसीस ढंढण गुणजुग्गह । अंतराय जाणिइ लेइ नियलद्धि अभिग्गह । बारवई छम्मास भमइ गुणि रमइ समिडउ । भुक दुक बहु सहइ लहइ आहार न सुद्धउ । मोदकसीहकेसरसहिय कर्म कूटि केवल कलिउ । संपत्त सिद्धि संपत्ति सुह तपतरु इम पुफिय फलिउ ॥ १७ ॥
हुंति जि पंडियपवर अवरदुव्वयणि न कुप्पइ । ग्वंदगसूरिसुसीस जेम आयार न लुप्पइ । पालयकयउवसग्ग लग्ग मण तीहं सज्झाणिहिं ।
जंत्रिहिं जीविय चत्त पत्त सवि सिद्धह ठाणिहिं । सो अग्गिव नरगिहिं गयउ वाडव भव भमिसिइ घणउ । भो भविय भावि इम कोह अरि खंतिखग्गि हेलां हणउ ॥ १८ ॥
पुज्जइ सुरवर पाय राय नितु नमइं निरग्गल । तपि सिज्झइं नवनिद्धि सिद्धि सवि सरई समग्गल । तपह लेस हरिएसबलह जिम जगि जस होवइ ।
न कुलक्कम न प्पसिद्धि रिद्धि नवि तसु कुइ जोवइ । तिंदुक जक पयतलि लुलइ बहुबंभण बोहिय बलिहिं । कोसलियधुयपरिणीति जीय भजीय सुद्धि अच्छिपकुलिहिं ॥१९॥ एसु साहुआचारसार जइ लोभि न डल्लइ । वयरसामि संपत्त नयरि पाडल सम तुल्लइ ।
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