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प्राचीनगूर्जरकाव्यसङ्ग्रहः नदीतणइ पूरि न वाहलई, रायतणइ मनि रंगि रहावीयई मधुस्वरि न पाहलइं; समुद्रि सेतुबंध बांधीइ पर्वते न काकरइं; दृढगढतणी पोलि भांजियइ गजेंद्रि न बाकरई, याचकजननां दरिद्र टालीयइं दातार लक्ष्मीवंति न आजन्मदुस्थि; सकलसंदेह भांजीइ केवलीए न छनस्थि । तेह कारणि तउं हे स्वामिन् अम्हारा संदेह टालि, एक संदेह ऊपनउ सरोवरतणि पालि; एक ऊपनउ अटवीठामि, एक संग्रामि; एक स्वयंवरि, ए सवे संदेह अपहरि । इसी बीनती सांभली जगनाथ कहइ छइ अहो नरेश्वर सांभलउ । हिव कहीइ छइ पूर्वभव, जिसिउ हूउं अनुभव । ईणइ क्षेत्रि भृगुकच्छनामिई नगर, जिहां नर्मदा नदी प्रवर; प्रौढ धवलगृह, लोक पुण्यविषइ सस्पृह; जीणि नगरि महाधर मंडलीक सेलहत्य वरवीर राउत डबइत भाथाइत ऊडणाइत फलहकार छुरीकार नलीकार कुंभकार सींगडीया साबलीया जेठी यंत्रवाक्षा भंडारी कोठारीप्रभृति राजलोक वसई, सर्वज्ञभवन देषी मन उल्लसइ । जिहां पद्मश्रीनामि सरोवर, महामनोहर, जिहां राज्य पालई द्रोणनामा नरेश्वर । तेहतणइ सागर अनइ पूरण इसिइ नामि पवित्र चरित्र, वि पुत्र । ते बेउ नर्मदानदीमाहि बेडी चडी मत्स्य विणासि वाप्रवर्तिया । तिसिइ अवसरि मत्स्य एक साम्हउ जोई तीन तिइं बोलिउ। रे दुराचारउ म करउ पाप, नरकि इस्यां हुसिइ संताप, नहीं छूटउ करताइ विलाप; जइ न मानउ तउ पूछउ आपणउ बाप । ए वात सांभली बेउ कुमर भयभ्रांत हुआ । तिसिइ नदीनइ कठि एक दीठउ मुनीश्वर । तेहे बेडीतउ ऊतरी नमस्करिउ । वच्छउ तुम्हे म्हारा पौत्र, हूं पालउं चारित्र; तुम्हे करउ अक्षत्र । तीणइं सोनई किसिउं कीजइं जीणइं त्रूटइं कान, तीणई उपाध्यायि किसिउं कीजइं जीणइं चूकई ज्ञान, तीणइं ठाकुरि किसिउं कीजइं जीणइं पामीइ पगि पगि अपमान; तीणई धर्मि किसिउं कीजइ जीणई वाधइ मिथ्यात्ववाद, तीणइं वयरई किसिउं कीजई जीणि पाछइ ऊपजइ विषवाद, तीणि मित्रि किसिउं कीजई जीणि थाई प्रसाद; तीणि घरि किसिउं कीजई जेहमाहि फूफूड साप, तीणइं स्त्रीइं किसिउं कीजई जेहतु नितु संताप, तीणइं रामतिइं किसिउं कीजई जीणि कराइ पाप । वत्स मुझ भक्त व्यंतरि, मत्स्यमुखि अवतरी; तुम्हे जगाडिया, पुण्यमार्गि लगाडिया । हिव पाप परिहरउ, पुण्य करउ । तीणइं ऋषीश्वरि पुण्यतणी परठ कही, तेहे बिहुं ग्रही । आव्या आपणइ घरि, करइं पुण्य नवनवीपरि; दिइं दान, धरइं अरिहंततणउं ध्यान; करइ सुगुरुभक्ति, जाणई विवेकयुक्ति; करावई प्रासाद,
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