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पृथ्वीचन्द्रचरित्र ।
१२७ प्रमाण । अनइ जं पुत्र विवेकीया विचारवंत, सहजिइं संत सौभाग्यवंत, गरू
आंप्रति भक्तिवंत गुणवंत; देवगुरुधर्मतणइ विषइ तत्पर, सुपुत्र पामीयइ जइ पोतइ पुण्यतणउ भर।
हिव तु पामीयइ सुमित्र उत्तम, जइ पोतइ पुण्य हुइ निरुपम । एक जीव सहजई दुर्जनप्रकृति, पापतणइ विषइ मोटी आकृति; मुहि मीठउ, चित्ति विणठउ; पिरायां छलछिद्र जोइ, विणास विण विगोई; उपगारिकेतलईन लीजई, परप्रशंसा मनमाहि षीजइ; आपणपउं घणुं देषइ, अवर नहीं किसिइं लेखड़ा सजन संकटि पाडइ, परदोष ऊघाडइ; राउलइ वानइ, देवगुरु अपमानई; मूर्तिवंत अधर्म, बोलइ पिराया मर्म । जिसिउं विषवृक्षनउं वन, इसिउ जाणिवउं दुर्जन । एकि जीव, सहजिइं उत्तमस्वभाव, पुण्यऊपरि भाव; उपगार करई, परमर्म हीयडइं धरइं; परदोष न प्रकासई, असत्य न बोलई हासइं; उन्मार्गि न चालई, पापवार्ता टालई, गुरूपदेश झालई, धर्मतउ न हालई; नवे क्षेत्रे वेवई धन, जिसिउ बावनुं चंदनु; इस्यां जीहनां सीतल मन, इस्या कहीयइ सजन । संपजइ सुमित्र सज्जन सुजाण, तं पुण्यतणउ प्रमाण । इस्यां धर्मफल देषी, प्रमाद ऊवेषी; आलस परिहरी, आदर करी; पुण्यतणइ विषइ भावनासहित लाभ लेवउ । जेह कारणि इसिउं कहीइ । जिम प्रासाद शोभइ ध्वजाधारि, जिम हृदय शोभई हारि; जिम गृह शोभई उत्तिम नारि; जिम मस्तक शोभइ केशप्राग्भारि, जिम कर्ण शोभइ स्वर्णालंकारि, जिम शरीरि शोभइ शीलशृंगारि; सरोवरि शोभइ कमलि, पुष्प शोभइ परिमलि; मुष शोभइ निर्मलि नेत्रयुगलि, रात्रि शोभइ चंद्रमंडलि; विवाह शोभइ कूरि, उत्सव शोभइ तूरि, नदी शोभइ पूरि; जिम सम्यक्त्व शोभइ प्रभावना, तिम धर्म शोभइ भावना । एह कारणि भावनासहित पुण्यवंति लाभ लेवउ । जिसिइं पुण्यप्रभावि सकलश्रेयकल्याण संपजई।
इसिउ उपदेश सांभली, मनतणी रुली, परमेश्वरप्रतिइं बिहुं नरेश्वरि वीनती कीधी वली । हे जगन्नाथ ! संदेह भांजिवानई ऊभउ हाथ; तुझ टाली अपरि संदेह न भाजइं, संदेहभंजन बिरुद तूंरहई छाजई । जेहि कारणि इसिउं कहीइं। समुद्रि उलंघीयइ भारंडि न मसइ, गजेंद्र विडारीयइ सीहि न ससइं; विषधरतणां विष जीरवियइं गुरुडि न कूकडइं, वृक्षसिहरतणां फूल लीजई तडवडइं न ढूंकडइं; संग्रामभूमिइं भिडीयइ राउति न दयामणइ, भंडारीतणा भार झालियइ अभीष्टि न अलषामणइं; पर्वततणां टोल ताणीयई
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