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प्राचीन गूर्जर काव्यसङ्ग्रहः
गोदड fres, घरि वित्रोड करो बाहिरि मिलइ, बोलावी बिसई हाथ ऊछलइ; फूफूती सापिणी, चालती चीत्रिणी; पुण्यद्वारतणी आगल, नगरतणी भागल ।
किसि कही । जिसी मिरीतणी ऊगदि, जिसिउं चालतडं पलेवणउं; जिसी दाधज्वरतणी बहिनि, इसी संतापकारि तु संपजइ नारी, जड जीव पापकर्म भारी | अन तु हुइ सुकलत्र, जइ पोतइ हुइ पुण्यपवित्र । किसी ते । सुशील सुलील सदाचार सत्यवंती विनयवंती विवेकवंती पुत्रवंती बोलवती सुजाणि मधुरवाणि देवगुरुतणइ विषइ भक्त, पुण्यतणइ विषइ आसक्त; सहजि सलावण्य, इसी सुकलन् तु संपजइ जइ पोतइ पुण्य । अनइ जं शरीरि संपजई लीलावंतपणं तं पुण्यतणउं प्रमाण । जं मधुरगति चालइ, पापबुद्धि पालइ; सहजि विचक्षण, शरीरि बीसलक्षण; अलिकुलकज्जलश्यामल केशपाश, अष्टमीचंद्रसमान भालस्थल, कामदेवकोदंडाकार भ्रूभंग, पूर्णचंद्रसमान वदनमंडल, आदतलसमान कपोलयुगल; मौक्तिकश्रेणिसमान दशनमाल, वक्षस्थल विशाल; प्रचंड भुजदंड, इसी रूपलक्ष्मी अखंड, तु संपजइ जइ पोतइ प्रचुरपुण्यपिंड | अनइ जे द्रव्य ऊपार्जिवातणइ कारणि एकि लोक देवदेवता आराधई, मंत्रविद्या सधरपणई साधई; राजसभा बुद्धिवंत भणी बइसई, रणक्षेत्रि पहिलां पइसइ; व्यापारकला केलवई, धूर्तपणई भलारहहं भोलवई: जलमार्ग स्थलमार्ग आदरि आक्रमई, भूमंडलि भूजाबलि भमई; जोगीपूठिइं लोभि लुबधा लागई, एक मोटा ठाकुर मागई; एकि पाला पुलता पंथि चालई, एकि हा दैव भणी व रागरि घाउ घालई; एकि हल पेडई, उलग करई लागा ठाकुरकेडई; रसकारणि रसकूपिका पडई, एक कलकलतई समुद्रि चडई; एकि त्रिन्निसई साठि क्रियाण वहुरई, पिरायां कवित्व वहरई; कष्ट सहई विपुल, पुणि लक्ष्मी तु पामई जइ पोतई हुइ पुण्य परिघल; घरि सुवर्ण मणिरत्न प्रवाल, प्रधान मुक्ताफल, गजरथतुरंगमादिक जाणिवा लक्ष्मीता विलास सकल ।
हिव जं संपजइ सत्पुत्र, एहू पुण्यतणउं चरित्र । एकई तणइ एकि कुपुत्र हुई जे बालपण पालीई लालीई पणि जेतलई यौवनभरि जाई, तेतलई मावीत्रसाम्हा थाई; कृत्य अकृत्य न गिणई, वडांतणां वचन निहणई; मावी -
साम्हां नीठुर बोल भणई, अहंकारि हणहणई; लक्ष्मीमदि कुपात्रि वरसई, कुस्थानक विलसई, पिराई भूमि ग्रसहं चाहए वचनि उल्लसई, रूडी वात कहतां साम्हां धसई; स्वाननी परि भसई, अपरहुई हसई; पापकरी ऊससई, धर्मवार्ता हिय न वसई; इस्यां जं पुत्र अभक्त अजाण, ए पापतणूं
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