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प्राचीनगूर्जरकाव्यसङ्ग्रहः धकार प्रसरिउं । जीणइं अंधकारि प्रसरतइ हुंतइं अवर कवण लेखइ, कोई आपणी छांह न देषइ । गजेंद्र गलगलारवि जाणीयइं, रथचक्र चीत्कारपणइं जाणीयइं; चिंधपताका किंकिणीकाणि करी जाणीयई, तूर्य शब्दि करी जाणीयई, नींसाण द्रहद्रहाटि जाणीयई । इसिउ अंधकार बिपहर दिवसतणा, च्यारि प्रहर रात्रितणा; छप्रहर गर्भवास सरीषु प्रवर्तिउं ।
हिव हूउं प्रभात, फीटी राक्षसनी वात, टलिउ अंधकारव्रत; अदृश्य नक्षत्रपटल, गगन उज्ज्वल; निःशब्द घूककुल, निर्मल दिग्मंडल; आश्रितपूर्वाचल, हूउं रविमंडल; विहसई कमल, विस्तरई परिमल; वायु वाइं शीतल, प्रसन्न महीतल; जिस्या रातापारेवातणा चरण, तिस्यां विस्तरई सूर्यतणा किरण । इसिइ प्रभाति हुंतइ दीसई घोडा हाथीया, दीसई पूरिया साथीया; दीसई रायराणापरिवार, पुणि न दीसई रत्नमंजरी कुमारि सार । तिवारइं सोमदेव राजा हूउ सचिंत, परिवार हूउ शोकवंत; पृथ्वीचंद्र राय हूउ विछाय । स्वजनवर्गसंबंधीया राईराणा तिसिइ अवसरि उल्हाणा । ते मंडप रत्नमंजरीपाषइ नि:श्रीक दीसिवा लागउ । जिम लवणहीन रसवती, व्याकरणहीन सरस्वती; गंधरहित चंदन, घृतरहित भोजन; खांडरहित पकवान, मानरहित दान; छंदरहित कवि, शक्ररहित पवि; विवेकरहित मणु, वेदरहित ब्राह्मणु; स्वर्गरहित ऐरावण, लंकारहित रावण; शस्त्ररहित पायक, न्यायरहित नायक; फलरहित वृक्षु, तपोरहित भिक्षु; वेगरहित तुरंगम, प्रेमरहित संगम; नासिकारहित मुखमंडल, कर्णपालिरहित कर्णकुण्डल; वस्त्ररहित शृङ्गार, सुवर्णरहित अलंकार; तांबूलरहित भोग, प्रसिद्धिरहित प्रयोग; कंकणरहित बाहुदंड, पणिछरहित कोदंड; चरणरहित बाल, राज्यरहित भूपाल; स्तंभरहित प्रासाद, दानरहित मान; मुष्टिरहित कृपाण; ठउलीरहित बाण; अणीरहित छुरी, लोकरहित नगरी । जिम पाणीरहित सरोवर, तिम रत्नमंजरीपाषइ ते न शोभइ लोकतणउ व्यतिकर । ते सभा, हुई निष्प्रभा। रीझइ हुंते जेहरहइं दीजई मोतीतणा त्राट, तीह भाट बोलतां न जोइ कोइ वाट; जीह रीझइ चीत, ते कोइ न गाइ गीत; जेहे ऊपजई चित्र, ते न वाजई वादित्र; जीणं धूणीइ मस्तक, ते कोइ न वांचइ पुस्तक; जीहनउं वषाणीयई औचित्य, तिसिउं न होइ नृत्य । इसिइ दुःखि स्वयंवरमाहि पवर्ततइ हूंतइ पृथ्वीकंपि छूटउ । धूजइ थंभ, धूजई कुंभ; धूजइ रायराणा आसणपीठ, बइठे रहीइं नीठ; एकि
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