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पृथ्वीचन्द्रचरित्र
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धूजतां पडईं, कायर रडई । इम धूजि विछूटी, पछइ सभाविचालि पृथ्वी फूटी । विवर नीपनुं । तेह ज माहि तेज प्रगट हुई। जोतां हृतां तेह विवरमाहि दिव्यरूपधारिणी सिंहासणि बइठी स्त्री एक दीसिवा लागी । तेह स्त्रीतणइ उत्संगि शोभमान तेजभारि, दीठी रत्नमंजरी कुमारि । सह आश्चर्यपूरित हूउं । तीणें स्त्री बिहं हाथि कुंअरि ऊपाडी बाहिरि मेल्ही, आपणपई माहि गई, पृथ्वी वली तिसीइ जि हुई । असमाधि फेडी, राजा कूंअरि आधी तेडी ।
तिवार लोकतणा मेला, वात पूछिवातणी नही वेला । हिव हर्षिह लोक कलकलिया, विशेषतु उच्छव ऊकलिया । राजा कुमारि अनइ पृथ्वीचंद्र सहित आवास पहुता । राय ऊतारे हुया । भोजन मंडपऊपरि धज लहलहिया, विवाहमहोत्सव गहगहिया । हुई धवलगान, नीपनां पकवान; केलवीयई धान, स्वजनहुई बहुमान; वापरई पान, जिमाडीयई जान | कामकाजना धणी पवटि बांधी हींडइ आकुला, मेलई चाउरी चाकुला । मेलइं आडणी, हिव भोजनतणी मांडणी । बइठी पांति, जिमणहार परीसणहार बिहुरहरं षांति । पहिलउं परीस्या फलावली खंडवाद्य पकान्न, पछड़ परीस्यां उपहा अन्न । तां विशालस्थालि, परीसी शालिदालि; घृततणी नालि, पाषलि शाकतणी पालि; ऊपरि कूर करंबा दहीं वापरई, ईणिपरि लोक भोजन करई । आचमन अनंतर दीघां कपूर मिश्र बीडां लक्ष्मीवंततणे सवे वस्तु संपजइ क्रीडां । हिव वेलाऊपरि राजापृथ्वीचंद्रहुई कराविडं मंगलस्नान, विवाहयोग्य पहिरियां वस्त्र प्रधान । सर्वांग शृंगार धरिउ, जाणे इंद्र अवतरिउ । गरुउ गजेंद्र आविउ, उत्तम स्त्री वधाविउ । गजेंद्र हूंतउं ऊतरी डाबइ पगि सिरावसंपुट चांपत माहि पहुतु । आचारविचार हुआ, चउरीसमाहि च्यारि मांगलिक वर्त्या, हाथमेलावणई दान प्रवत्। राजासोमदेवि वर हुई गजरथ तुरंगमदान दीघडं, राजापृथ्वीचंद्र महोत्सवसहित रत्नमंजरीतणडं पाणिग्रहण कीधउं । पछइ विशेषवंत उत्सवसंयुक्त ऊताराभणी चालिउ, सकललोक जोइवा मिलिउ । एकि वषाण पृथ्वीचंद्र भूप, एक वषाणइ रत्नमंजरीतणउं रूप; एकि वषाणइ भाग्य, एक वषाणइ सौभाग्य; एकि वषाणइ शरीरतणा शृंगार, एक वषाणइ परिवार; एक वषाणइ कहतणां कुल, एक वषाणइ बिहुंतणां शील निर्मल; एक वषाणइ लावण्य, एकि वषाणइ पुण्य । इसीपरि वषाणीतु स्थानकि आविउ, विश्वहुई आनंद ऊपजाविउ । राजासोमदेवि सविहुं रायहुई आवर्जन
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