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पृथ्वीचन्द्रचरित्र
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४ षड्ग ५ छुरिका ६ तोमर ७ कुंत ८ त्रिशूल ९ भाला १० भिंडमाल ११ मुसंढि १२ मक्षिक १६ मुद्गर १४ अरल १५ हल १६ परशु १७ पट्टि १८ शविष्ट १९ कणय २० कंपन २१ कर्तरी २२ तरवारि २३ कुद्दाल २४ दुस्फोट २५ गदा २६ प्रलय २७ काल २८ नाराच २९ पाश ३० फल ३१ यंत्र ३२ द्रस ३३ दंड ३४ लगड ३५ कटारी ३६ वह्नि । इस्यां हथीआर झलहलई, कायर पुलई । रथ जूडंता दूरापाती लघुसंधानी शब्दवेधी धनुर्धर धाया, बाण मेल्हते
आकाश छाया । एकि घोडे चडई, एकि ऊतावला पडइं; कायर रडई, सुभट भिडई, योध जुडई । घोडा मुह मूकी धाइं, बेटे पगि ऊजाई; हस्तीतणा सुंडादंड त्रूटइं, एकिना शिर फूटई । इसिइ युद्धि प्रवर्त्ततइ हुँतइ राजा पृथ्वीचंद्रतणुं दल वयरीए एकवार भागू, नासिवा लागू । समरकेत हूउ सानंद, पृथ्वीचंद्र हूउ निरानंद; चीतवइ ए किसी वात, माहरा दलरहई काई हूउ उपघात । राजा चीतवतइ हूंतइ वीर एक आकाशमार्गि आविउ, तीणई कउतिग नींपजाविउ । तीणं दीठइ वयरीना हाथतु हथियार पडियां, पृथ्वीचंद्रना कटकरहई चडियां । राजासमरकेतु बांधी पृथ्वीचंद्रतणे पगतली आणिउ, पुण ते वीर तिवारपूठिई कुणहीं न जाणिउ । तत्काल जयजयारव ऊछलिउ, राजापृथ्वीचंद्रतणउ वीरवर्ग मिलिउ। इति श्रीअंचलगच्छे श्रीमाणिक्यसुंदरसूरिविरचिते श्रीपृथ्वीचंद्रचरित्रे
द्वितीयोल्लासः । तृतीयोल्लासः
जइ मान मोडिउ, तउ समरकेतु बंधहूंतउ छोडिउ; पिहरावी बोलावीउ । तुं मनि गर्व आणे, माहरी वात न जाणे। किवारइं सूर्य पूर्व छांडी पश्चिम उदय मांडइ, समुद्र मर्यादा छांडइ; मेरु ढलइ, आकाशतउ नक्षत्रराशि गलइं; पापीयाघरि धर्म पलइ, पाणीमाहि अग्नि प्रज्वलइं; धूमंडल पलभलई, कुलाचलचक्र चलइ; अमृतहूंतउ विष थाइ, पृथ्वी रसातलि जाइ; कृपणि दान दीजइ, पुणि मुझकन्हइ प्राणि शरणागत चोरइ किम लीजइ । तिवारई जे आविउ छह शरणि, ते लागु राजातणे चरणिं; स्वामी तुं धन्य जीणि तइ हुं ऊगारिउ, नहींतु तलारे हूंतु मारिउ; पडतउ संसारि; होयत मनुष्यजन्मतणी हारि । राजा कहिउं तु किसिउ, जेहनु मन इसिउं । विचारि ते कहिवा लागु । अंग
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