________________
१०८
प्राचीनगूर्जरकाव्यसङ्ग्रहः देशि श्रीपुरिनगर, तिहां श्रेष्ठि लक्ष्मीधर, श्रीलक्ष्मीइं सधर । तेहतणु पुत्र हुं श्रीपति, पणि विषम दैवगति; दसकोडि द्रव्य हूंती, पणि बापुजीसाथि पहुती।पिता परोक्ष हुआ पूठिइं जं वाहणमाहि घातिउं, तं समुद्र सातिउं; कई वाणउने ग्रसिउं,हाट चोरे मुसिउं; थलवटनउ थलवटइ रहिउं, कांई ठाकुरे ग्रहिउं; घर बलिउँ, समग्र मंडाण टलिउं; समग्र द्रव्य निस्तरिउं, एकलक्ष द्रव्य ऊगरिउ। पछइ अवर काजकाम छांडिलं, प्रवहण पूरिवा मांडिउं । भलइ दिवसि प्रवहण पूरिउ, त्रिन्नि सई साठि क्रियाणां चडाव्या, सप्तविध पकवान चडाव्यां; सप्तविध करंबा लिया, पोतां सपाणी भरिया, देवसमुद्र वायस पूजाव्या। षाभिल मादल वाजिवा लागां, बाबरि कोलणि नाचेवा लागी, गलेला हेलाहेल करवा लागा; कूउषंभउ ऊभउ कीघउ, नागरउ पाडिउ, सिढ ताडिउ; घामतीउ घामतउ लीचइवा लागु, वाऊरीऊ तलि पइठउ, नीजामउ नालि बइठउ।आउलां पडई, सूकाणी सूकाण चालवई, मालिम वाहण जालवई; सुरवर लहलह्या, वादिननादि समुद्र गाजी रह्या। हिव आगलि जातां हूंता चिली वाय वायां, आकाशि हूई मेघछाया; ऊडिउ पवन प्रबल, समुद्र हूउ उच्छृखल; कल्लोल आकाशि ऊपडई, बीहतां लोकरहइं डींबा चडइ; वेला लामी, वस्तु वामी; एक हा दैव करइ, एक देवध्यान धरई । वाहणि पर्वत आफली भागउं, श्रीपतिइ हाथि पाटीउ लागउं। तेहनइ आधारितरतउ तरतउ बिहु दिवसि पारि आविउ, वनमाहि सरोवरि जल पीउ, फलभक्षण नीपजाविउ । आगलि जाता दीठउ योगी एक, मइ साचविउ नमस्कारतणउ विवेक । जोगी कहिउँ तूरहिइ एक देसु, बीजउ लेइसु।मई कहिउं दिइ,पछइ मुज निर्डनकन्हई जं देषइ तं लहिइं। जोगी बंधछोडणी विद्या देइ मस्तकि मागिउं । मई चीतवइउं, वली पूर्वभवपातक जागिउं । जोगी धायु पूठि, मइ नासिवा बांधी मूठि । नासतु ईणि नगरि आवी रात्रिइं गढतणइ पालि पयसी रहिउ, तलारके ग्रहिउ; तइ राषिउ, मोटउ उपगार दाषिउ।
छासिइंकेरउ आफरु दासिइकेरु नेह ।।
कंबलकेरु मोली षिसत न लागइ षेव ॥ . माहरी लक्ष्मी इहसरीषी हुई, तउ कहीइ। आभातणी छांह, कुपरिसतणी बाह; आढनउ तूर, नदीनूं पूर; ठाकुरनउ प्रसाद, माकडनउ विषाद; वहीनउ पडीगणउं, सूपडानउ उठीगणउं; दीवान तेज, मात्रेईनु हेज; दासीनु स्नेह, शर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org