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प्राचीनगूर्जरकाव्यसङ्ग्रहः नाठउ, तुम्हनई शरणइ पइठउ । पुणि ए पापी, जीणि प्रजा संतापी; ए तुम्ह म थापउ, अम्हरहइं आपउ । नहींतु घायप्रहार देसिउं, प्राणिहिं लेसिउं । अम्हारउ ठाकुर सपराणउ, तेह आगलि कोई राय नइ राणउ । सांभलउ ए वात, ए आगलि दीसइ पद्मपुरनगर महाविख्यात । तिहां छइराजा समरकेतु, अतिसचेतु, वयरी प्रति साक्षात् केतु । जेतलइ तेउ ए वात जाणिसिइ, तेतलई ताहरा अहंकारतणउ अंत आणिसिइ । एह कारणि चोर आपी निर्दोष थाउ, पछइ तुम्हे भावइ तिहां जाउ । इसी वार्ता सांभली आपणां सुभटसाम्हउं जोई राजा पृथ्वीचंद्र हस्या, तउ ते सुभट उल्हस्या । ऊठिया ते वीर, ताकवा लागा तोमर तीर । नाठा तलार, नासता पूठिई वाजइ प्रहार; नीठ ते जई नगरमाहि पइठा, तु नाभिई सास बइठा । जइ वीनविउ समरकेतु राउ, देषाडई आपणउ घाउ । समरकेतु राजा कीधउ कोप, हूउ दलवई निरोप; तत्काल सामहिउं दल, मिलई सुभट सबल; वाजई प्रयाणभेरी, बीहई वयरी; पाटहस्ति गुडिउ, तेहऊपरि राजा चडिउ । रथ हथियारे भरिया, तुरंगम पावरिया, पायक सांचरिया; चतुरंग दल नीकलिउँ, बाहिरि एकठउं मिलिउं; दीसइं छत्रध्वज, ऊछलइं रज।तउ तेह दूत मोकलिउ तिहां रही, तीणे पृथ्वीचंद्रप्रतिइं इसी वात कही।तुं पियारइ देसि पइस, अन्याय करी इहां बयस;तउतुं अजाण, अजी मानि स्वामीसमरकेतुतणी आण, नहींतु प्रकटि प्राण; चोरदंड तुझनई होसिई, लोक कउतिग जोइसिइ । ईणई वातई दूत अपमानी बाहिरि काढी राजा पृथ्वीचंद्रि दल सामहाविउं, ए आपणइ पर्व आविउं । चाल्यां बेउ दल, ऊपडइं धूलिपडल; कोइ आप पर विभागबूझवइ नहीं, पितापुत्र सूझइ नहीं।न जाणीइं आपणां दल, न जाणीइ पिरायुं दल, न जाणीयइ भूतल, न जाणीइ नभोमंडल; नजाणीइ पूर्व न जाणीइ पश्चिम एकाकार हूउं । बिहुँ दल मिलते मादल वाजी, जयढक्क वाजी, रणचडण काहली वाजी; रणतूर वाजियां । त्र्यंबकतणे ब्रहादि जाणे त्रिन्हइ त्रिभुवन टलटलिवा लागा, भेरीतणे भूभूयाटि भुहि भिलिहि फाटी, काहलतणे कोलाहले कायर कमकम्या, नीसाणतणे निनादि उच्चैःश्रवा ऊकनिउ, ऐरावण ऊमंडिउ, दिग्गज डहडहिया, ढाकबूक वाजी, बुंबारव फाटी, बिहुँ दलि चालते सेषनाग सलवलिउ, कुलाचलचक्र चलिउ, कूर्म करोडि भाजइ, अंबर गाजइ; अकालि अप्रस्ताविप्रलयकालनी शंका हुई। बाध्याक्रोध, झूझइंयोध; घाय जालवई, छत्रीस दंडायुध चालवई । किस्यां ते। वन १ चक्र २ धनुष ३ अंकुश
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