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पृथ्वीचन्द्रचरित्र
१०५ तेहमाहि नरेश्वरतणां कटक न लहई माग, न लहइ नदीतणा ताग; न सकइ चाली घोडा हाथी, न को जाणइ साथी। विषम पर्वतमाला, डाबी जिमणी दवतणी ज्वाला, जई न सकई चडिया नइ पाला, तेतलई दीसिवा लागा भील अत्यंत काला। तिवारइं राजापृथ्वीचंद्र चींतविउं आवी विषम वेला, जई थाई भील भेला; तु किम झूझीयई, जइ परदल न बूझीयई । जेतलई राजा इसिउं चीतविउं तेतलई ते कटक अटवीऊपरिहुई पारि पहुतुं, मनि गहगहतुं। आगलि नगर एक देषइ, ते हर्ष कुणतणइ लेषइ । सवे कटकीया लोक आश्चर्य धरई, परस्परई इसी वात करई । कुणहिं काई जाणिउं, ए कटक इहां कुणि आणिउं; दैव रूठउ, पुणि देव दाणव कोइ तूठउ; जीणइं एवढें सानिध्य कीधउं, हेलांमात्र कटक इहां लीधउं । अथवा राजा पृथ्वीचंद्र धन्य, जेहनुं गरूडं पुण्य । जेह कारणि इस्युं कहइ।जे गया विदेसि, पडिया क्लेशि; ताणीया पाणीनइ पूरि, आक्रम्या क्रूरि; चांप्या सधरि, डसिया विषधरि; धरियां राइ, भेल्या घणे घाइ; मुरडिया मोगे, दूहविया रोगे; ऊपाडिया बंदि, पडिया विछंदि; तीहं सविहुंनई धर्मनउ आधार, ए साचउ विचार । लोकरहई इसी वात करतां राजाई तिहां आंबावृक्षहेठलि आव्या, ऊतारा नीपजाव्या । तेतलइ धातु, पुलतु; पाछउ जोतउ, कायरपणइ रोतउ; पुरुष एक नरेश्वरतणइ शरणि पइठउ । तेतलइ तरूआरि ताकता, हणिहणि भणी हाकता; केई पुरुष आव्या । तेहइ राजा बोलाव्या।आपुए चोर, महाकठोर, जे एहनई राषइ ते ढोर। तिवारई राजातणे सेवके कहिउं अरे ए कहीइं राजा पृथ्वीचंद्र, एहस्युं पहुची न सकई इंद्र । तिवारई ते पुरुष कहिवा लागा। नरेश्वर पहिलउं वात अवधारउ, तउ चोर ऊगार। अम्हे तलार, करउं नगरतणी सार । पुणि ए चौर, दुर्दान्त अपार; ए विविधवेसि हेरइ, बोलाविउ बोल फेरइ; चडइ मालि अटालि, पइसइ परनालि पालि; कमाड ऊघाडइ, पुणि सूतु कोइ न जगाडइ, अघोर निद्रा दिइ; कानकोटना आभरण लिइ, कटारी पायबंधन वाढइ, पर्वतप्राय केकाण काढइ; चडिउं चोर पवाडई, राउला भंडार फाडइ; दीसइ दिसि शांत, पुणि रात्रिई साक्षात् कृतान्त; विणासीतउ न मानई चोरी, बांधइउं वाढी जाइ दोरी; लोह सांकल ब्रोडइ, घडी न रहई षोडइ; हाकिउ ऊजाइ, रंघिउ धसी धाइ, करि कीधा करवालि, जाइ लोकलक्षविचालि; गढमंदिर फाडई, धीजि अडइ । इस्यु ए चोर गढनइ परनालि पइसतउ लाधउ, पाडी बांधउ, दांते दोर जोडि
बोलाभरि ताकता, हाणह रोतउ पुरुषारा नीपजाव्या इसी वात के
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