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________________ दानवीरका स्वर्गवास | [ ८७९ जैन समाज के हृदयपर पहले शिक्षाका प्रकाश डाला । इस लिये कहते हैं कि जैनसमाजने आपको खोकर अपना सर्वस्व खो दिया । सेठ साहब ! हमारे दुःखी आत्माको सान्त्वना देनेके लिये कदा चित आप स्वर्ग सन्देशा भेजो और कहो कि “भाई एक मेरे लिये तुम इतना क्यों दुःख करते हो ? जैन समाज में तो अभी मुझसे भी बड़े बड़े धनी मानी पुरुष हैं । " हाँ हम भी करते हैं कि हैं, पर वह उदारता, शान्ति, परोपकार, प्रेम, सहनशीलता, निरभिमानता आदि गुणोंकी पवित्र मूर्ति वहाँ ? क्या अब हमें कमी उसके दर्शन होंगे ? नहीं । आजके धनिक जैनसंसार में न उदारता है, न शान्ति है, न सच्ची परोपकारता है, न प्रेम है, न सहनशीलता है और न निरभिमानता है । फिर हमें उससे क्या आशा हो सकती है ? समाजको किसी कारण सहायता देना दूसरी बात है और उसके लिये हार्दिक प्रेम बतलाकर अपना कर्त्तव्य पालन करना दूसरी बात है । आपमें प्रेम था, आपने जो कुछ किया वह अपना कर्त्तव्य समझकर किया है, इसीलिये आज सारा जैनसंसार आपके लिये हृदयसे रो रहा है और शताब्दियों तक रोयेगा । सेठ साहब, आपकी जगह की पूर्ति करनेवाला जैनसंसार में इस समय तो कोई हैं नहीं, आगे होगा या नहीं ? यह भगवान् जाने, पर ऐसी आशा करनेका अभी कोई लक्षण नहीं है । सेठ साहब, आपके वियोगसे हमें जो दुःख है, उसे तो हमारा हृदय ही जानता है; पर - " गतिर्देवी बलीयसी " इस वाक्यका स्मरण कर मन मारकर रहजाना पड़ता है । अस्तु, हमारा जैसा भाग्य है, उसे हम तो भोगेंगे ही, पर आपके पवित्र आत्माको शान्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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