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अध्याय तेरहवां । नहीं हुआ, कि उसपर अनायास यह आपत्ति का पहाड़ आ गिरा ! हाय ! अब कौन बेचारे दुर्बल समाजकी रक्षा करेगा ? कौन उसे अपने हाथका सहारा देगा ? निर्दयी काल ! तूने उसका एक मौलिक रत्न छीनकर उसे पथ पथका भिखारी बना दिया है ! अन्धेके हाथकी लकड़ी छीनकर उसे गहरी खाई में ढल दिया है ! हाय ! हम अपने इस दुःखका हाल लिसे नाकर कहें ! कौन हमें प्याके साथ अपने पास बैठाकर हमारी इस मर्मवेदनाको सुनेगा ? कौन हमें इस दुःखमें मान्त्वना देकर स्वयं भी शामिल होगा? हाय! कहते हृदय फटता है कि जो हमारी दुःख दशाका सुननेवाला था, जो बड़े प्रेमके साथ दुःखमें सान्त्वना देकर हमें धैर्य बँधानवाला थाहमारे दुःखपर प्रेमके दो आसू बहानवाला था, वह अब इस भौतिक देहको छोड़कर स्वर्गमें जा बसा !
महात्मा माणिक ! आपको खोकर आज जैनसमाज बहुत दुःखी है। उसका बच्चा बच्चा आज आपके लिये आंसू बहा रहा है। उसने आपको खोकर आज सब कुछ खो दिया। वह कंगाल हुआ, भिखारी हुआ । उसके भाग्याकाशमें आज फिर अन्धेरा छाया ।
महात्मन् ! जैनसमानमें आप सच्चे महात्मा थे, दानी थे, उपकारक थे, वीर थे, रत्न थे, क्योंकि आप ही इस बीसवीं सदीमें सबसे पहले पहल उसके कल्याणपथ-प्रदर्शक हुए। आपहीने अपने धनका उपयोग समाजकी जरूरतोंको देखकर किया । आपहीने अज्ञानके समुद्र में डूबते हुए समाजको बिद्या-तरणिका सहारा देकर बचाया । आपहीने सबसे पहले अज्ञानरूपी भयंकर राक्षसका साम्हना कर उसे मार भगानेका साहस किया । आपहीने
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