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८४४ ] अध्याय तेरहवां ।
अब क्या करें ? बन्धुओं ! हमारा अग्रेसर तथा जैन मात्रका सच्चा हितैषी धर्मबीर दानी जैन कुलभूषण तो लोगों से सदाके लिये मोह छोड़कर अमरपुर ( स्वर्ग ) को प्रस्थान कर गया ! चारोंओर करुणाननक ध्वनि सुननेमें आ रही है । जैनों ही के नही, किन्तु उक्त महानुभावसे परिचित स्वदेशी तथा विदेशी अजैनोंके भी चेहरेपर शोक चिन्ह दृष्टिगा होते हैं, सो क्यों ? इसका कारण यह है कि उक्त सेठजी (माणि चंद हीराचंद) ने अपने सरल स्वभाव, कार्यकुशलता मिष्टभाषण, परोपकार, दान, शील, उत्साह, उद्योग, प्रेप आदि सग्दुणों द्वारा हम सब पर ऐमा प्रभाव डाल रक्खा था, जिससे कि बार बार भुलानेपर भी वह गंभीर मूर्ति हमारे नेत्रोंसे अलग नहीं होती है। यही कारण है, कि चढू ओरसे यह ध्वनि ध्वनित हो रही है-अब क्या करें ? हाय ! अब क्या करें ? इत्यादि सो ठोक है।
शोकाकुल और निराधार मनुष्योंके मुंहसे ही ऐसे ब क्य निकलते हैं । यथार्थमें जैन समाज इस समय बिलकुल ऐसी ही निराधार हो रही है। वह शोकग्रसित है। उसे इस समय और कुछ सिवाय " अब क्या करें " के नहीं दिखता है, भला, जव रामचंद्रजी, बलदाऊ जैसे महान नररत्न भी भाईके शोकसे विह्वल हुए छ:माह तक भटकते फिरे थे तो हमारे मस्तकका क्षत्र उतरे अभी ६ सप्ताह भी नहीं हुए हैं, सो भला विह्वल क्यों न होगें ? परन्तु भाइयों, यह अनादिका नियम है कि प्रायः ज्यों ज्यों दिन वीतते जाते हैं, त्यों त्यों जीव अपने विषय कषायोंमें फंसकर
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