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________________ ८४२ ] अध्याय तेरहवां । आदि गुणोंसे सम्पूर्ण भारतभूमि गूंज रही है । शोक, महा शोक ! कि आज आपकी दिव्यमूर्ति इस संसारमें हमारे नेत्रोंसे अदृश्य हो गई !! हा ! दुष्ट काल, तुझे किंचित भी दया न आई ? क्या तुझे किंचित भी दया न आई ? क्या तुझे अपने पापी पेटकी क्षुधा मिटानेके लिए और कोई न मिला ? क्या तुझे जैन समाजको ही दुःखी करना अभीष्ट था ? निर्दई, पापी, तूने १३ लाख जैनियोंके दिलोंको दुखाकर अपने वज्र हृदयको शांत किया ! अरे दुष्ट पापी ! शेठजी जैसे सरल स्वभावी, शांतचित्त मनुष्यने तेरा क्या बिगाड़ा था ? वे स्वप्न में विचारते थे, किंतु सदा इसी चिंता में रहते थे कि समाज जिसकी बड़ी हीन अवस्था हो रही है अन्य समाजोंकी समान उच्चावस्थाको प्राप्त हो । किसीका बुरा न किसी तरह जैन उन्नति करे और उनके जीवनका एक मात्र यही उद्देश्य था । बहुत दिनोंसे व्यापारादिका काम भी छोड़ दिया था और केवल धर्मोन्नति व समाजोन्नत्तिके कार्यों में ही अपना सम्पूर्ण समय व्यय करते थे । एक प्रतिष्ठित धनाढ्य होनेपर भी आप स्वार्थी और अभिमानको तिलांजली देकर शारीरिक कष्टों को सहते हुए चहूं ओर भ्रमण करते थे और जहां जिस चीजकी कमी देखते थे तत्काल उसे दूर कर देते थे । आज समाजमें जितनी संस्थाएं हैं, जितने आंदोलन हैं, उन सबके नेता आप ही थे। ऐसा कोई भी उन्नात्तका काम समानमें नहीं हुआ, जिसमें आपने अग्र भाग न लिया हो और तन मन धन से सहायता न की हो । आपने जैन समाजका जितना उपकार किया उसके प्रकट करनेके लिए हमारी लेखनीमें सामर्थ्य नहीं । हम केवल For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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