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________________ दानवरिका स्वर्गवास । मर जाय मनुजपर नहीं, सुयश मरता है । दिन दिन दूना निश चतुर - गुणित बढ़ता है ॥ ११ ॥ तेरे बिछोहसे हाय ! हृदय जलता है । पर काबलीपर किसका, वल चलता है । जो उपजत है जग मांहि, अवशि मरता है । हो पूर्ण आयु फिर नहीं, समय टरता है ॥ १२ ॥ वहु इन्द्र चन्द्र अवनीन्द्र, आदि पदधारी । परि गाल कालके हुए, मृत्यु- मग चारी ॥ यह है अशरण संसार, मरणकी बेरा । नहीं मेट सकत है कोई, कालका फेरा ।। १३ । गुरु साधु सिद्ध अरहंत, आदि उपकारी । हैं जिन शामनमें शरण, बाह्य विवहारी ॥ पर निश्चयनयसे शरण आप अपना है । यह जानि शोकके ताप, नहीं तपना है ॥ १४ ॥ ये शोक आताप, प्रगट दुखकारी | दुःख अति करत असाता बंध, सुगति सुख टारी ॥ इमि जान शोकका तजन, करौ सत्र भाई | नित प्रति जिनवरका भजन, करौ सुखदाई ॥ १५ ॥ [ ८३३ हे दीनबंधु सर्वज्ञ, जगत हितकारी । हों श्रेष्ठ श्रेष्ठ अवनीन्द्र विदेह मंझारी ॥ तजि सकल परिग्रह सर्व, महाव्रत धारें । घर घरम शुक्ल मुनि छपक, मोह निरवारें ॥ १६ ॥ हनि चार घातिया कर्म, धर्म विस्तारे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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