SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 927
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय तेरहवां | यह विपत परी अति आन, धर्मपर भारी । सब रुदन करत थे जैन, अजैन दुखारी ॥ तत्र धारि हृदय सन्तोष, शान्ति विस्तारी । कर अमित परिश्रम आप, विपत निरवारी ॥ ६ ॥ ८३२ ] तुम सत् विद्या परचार हेतु श्रम कीना । " चंचल लक्ष्मीसे नेह, त्याग तुम दीना ॥ तुम धन्य धन्य नररत्न, दीन दुख हर्त्ता । निज करनी के वश सुयश, जगत विस्तर्ता ॥ ७ ॥ वह हीरासी उद्यान, लगत है सूना । हिय' आवत ताकी याद, होय दुख दूना ॥ बहु सभा सुसैटी स्यादवाद चटशाला । बिन तेरे विधवा हुई, हाय ! तव बाला ॥ ८ ॥ सदविद्या प्रेमी छात्र - वृन्द बहु तेरे ॥ होगये सकल असहाय, हाय ! बिन तेरे || इक तुम्हरे ही अवलम्ब, रही जिन जाती । अत्र तु विछोहसे रुदन करत दिन राती ॥ ९॥ " तसु डूबत दृति मंझवार, शरण तुम दीनी । अब त्याग ताससे नेह, स्वर्ग गति लीनी ॥ नहिं धारी किंचित दया, मार्ग गह लीना । हा ! शोक जलधिमें डुबो, कहां चल दीना ॥ १० ॥ इस आर्य भूमिपर उपजे, पुरुष घनेरे । पर बिरले ही नररत्न, हुए सम तेरे ॥ १ हीराबाम धर्मशाला. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy