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________________ ८१८ ] अध्याय तरहवां । पापीकाल ! तू पहले बड़े बड़े ज्ञानी और बुद्धिमानोंको अपना ग्रास बना चुका हैं, तब भी तुझे सन्तोष नहीं हुआ, जो आज तूने सेट माणिकचन्द्रजीको हरकर सारी जातिको भिखारिणी बना दिया ? ॥३॥ जैनसंसार बहुत समयसे अज्ञानरूपी भयंकर गर्मीसे संतप्त हो रहा था। भाग्यहीसे उसे सेठ माणिकचन्द्रजी सरीखे शीतल-वृक्षके नीचे आकर शान्ति मिली थी। हाय ! उसे अब हम कहाँ देखेंगे ? ॥४॥ हे गुणाकर ! इस विनीत जातिहीने आपको अपना भृषण नहीं बनाया, पर गुणियोंका आदर करनेवाली भारत सरकारने भी जे० पी० का पद प्रदान कर आपका उचित सम्मान किया ! ॥५॥ अनेक प्रकारकी वस्तुओंको देखनेकी इच्छासे असन्तुष्ट नेत्रोंको जिसका सुन्दर दर्शन सन्तुष्ट करता था, उस श्रेष्ठ कल्पवृक्षको अब हम कहाँ प्राप्त करेंगे ? जिसके पत्रकी जगह तो आपके गुण थे और उँगलियोंकी जगह हाथ ॥६॥ सेठ साहब ! ऐसे तो बहुत लोग हो चुके हैं, जो किसीने धनको, किसीने शरीरको और किसीने मनको समाजके हित लगाया, पर उन सबमें आप एक ही हुए जो आपने अपना तन, मन और धन समाजके लिये अर्पण किया। हाय ! आप जैसे पुरुष रत्नको अब हम कहाँ देख पायेंगे ? ॥७॥ हे दयासागर ! आपकी मृत्युसे हमारे अशान्त मनको किसी तरह समझाना ही पड़ेगा। ( क्योंकि उसके लिये सिवा इसके कुछ गति ही नहीं है )। अन्तमें हम चाहते हैं कि आपका पवित्र आत्मा शान्ति लाभ करे और आपका कुटुम्बवर्ग भी सुखी हो । काशीके सात विद्यार्थी । शेठ माणेकचंदजी यांचा निधनजन्य विलाप (चाल-चन्द्रकांत राजाची) खनिजोद्भिज (ज) तिर्यञ्च-मनुज हे कोटि-चतुष्टय की। असे तयां सकलांत श्रेष्ठ परि मानव इहलोकीं ॥ धु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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