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७६८] अध्याय तेरहवां । सर्व हॉल ऊपरसे नीचे तक खचाखच भर गया था। ब्रह्मचारी शीतलप्रसादनी जो इस समय काशी में थे सभाके समय तार जानेसे आजके दिन आ गएथे। प्रथम ही पं० खूपचन्दनीने सेठजीके आत्माकी शांतिके लिये श्री शांतनाथ स्वामीकी स्तुति की फिर परीख लल्लूभाई एल० सी० ई० के पेश करने व माणिकचंद बैनाड़ा महामंत्री, बम्बई प्रान्तिक सभाके समर्थनसे दानवीर सेठ हुकमचंदजीने सभापतिका आसन ग्रहण किया ।
सेठ हीराचंद नेमचंद शोलापुरने सेठजीके गुण गाए और ये वाक्य भी कहे " सेठनीकी मृत्युसे दि० जैन समाजने एक शांत महान् दानवीर रत्न खोदिया........सेठजी बिल्कुल निरभिमानी, सादे स्वभाव, परमार्थके काममें अतिशय भाग लेनेवाले
और अनेक सभा सोसाइटियोंके आधारभू। शे........वे महा पुरुष थे इस लिये अब अपनेको जो उनकी य 'गारीमें करनेका है वह यह है कि उनके द्वारा की हुई अधूरी योजनाओंको पूर्ण की जावे और उनके सदगुणों का शक्त्यनुसार अनुकरण किया जावे।
फिर ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने सेठजीकी महिमा वर्णन की जिसमें यह भी कहा कि " स्वर्गीय सेठ साहब अपने जीवनमें एक उच्च और उम्दा जीवनका आदर्श जैन और जैनेतरोंके लिये छोड़ गए हैं। वास्तवमें जैन कोमका पथप्रदर्शक लुप्त हो गया है। उनके गुणका उत्तम लक्षण विद्याकी रुचि है........"
फिर (श्वे०) पंडित फतहवंद कपूरचंद लालनने कहा "उनके जीवनका उद्देश्य ज्ञान और दया था। और उन्होंने इनको पूर्ण किया है। उनकी मृत्युसे दिगम्बरियोंको ही नहीं परंतु श्वेताम्बर और
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