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अध्याय दूसरा ।
एक पंचमेरु है उसके १ लेखसे इस तरफ होनेवाले काष्ठासंघी भट्टारकोंके क्रमका पता चलता है ।
नकल लेख पंचमेरू दि० जैन मंदिर गोपीपुरा सूरत। “संवत १७४७ शाके १६२२ प्रमोदनाम संवत्सरे ज्येष्ट मासे कृष्णपक्षे सातम बुधवासरे नंदीतटगच्छे भट्टारक विधगणे भट्टारकश्रीरामसेनान्वये तत्पट्टे भट्टारक श्रीविशालकीर्त्ति तत्पट्टे भट्टारक श्रीविश्वसेन तत्पट्टे भट्टारकश्री विद्याभूषण तत्पट्टे भट्टारक श्रीभूषण तत्पट्टे भट्टारकश्री चंद्रकीर्त्ति तत्पट्टे भ० श्री राजकीर्त्ति तत्पट्टे भट्टारक पं० लक्ष्मीसेनजी तत्पट्टे भ० श्री देवेन्द्रभूषण तत्पट्टे भट्टारक श्री सुरेन्द्रकीर्ति प्रतिष्ठितं ।"
यहां धातुका एक रत्नत्रयका प्रतिबिम्ब है जिसमें तीन कायोसर्ग प्रतिमाएं एक साथ अंकित होती हैं उसको इधर रत्नत्रय वि कहते हैं । इसका लेख यह है :
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" सं० १७६२ माघ वदी ७ शुक्र श्रीसूरत बंदरे श्री चंद्रनाथ चैत्यालये काष्ठासंघे नरसिंहपुरा ज्ञातीय कुकालोलानी संघवी नाना सुत हीरजी तस्य भा० त्रिनीबाई तो पुत्रा सुन्दरदासजी हीरजी तथा त्रीकमजी हीरजी तथा हेमजी हीरजी तथा वहन मेघवाई तथा जंगबाई प्रतिष्ठितं" काष्ठासंघ जो नाम उपरक शिलालेख में आये हैं वे सर्व नाम उस संस्कृत गुर्वावली पाठमें है जो ६४ लोलोंकी है तथा जो करमसदके उस संस्कृत गुटके में है जो सुरेन्द्रकीर्ति भट्टार
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