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________________ महती जातिसेवा तृतिय भाग। [६३७ है तथा अब भी उठा रहे हैं इससे समस्त दिगंबर जैन समूह आपका अंत:करणसे कृतज्ञ है। आपने अपने बुद्धिबल और अटूट परिश्रमके द्वारा न्यायपूर्वक व्यापार करके जो प्रचुर सम्मत्ति उपार्जन की तथा उसमें से कई लक्ष रुपयोंसे ममत्व छोड़ उसको मुख्यतया छात्रालयों के द्वारा विद्यादान और धर्मशालादिके द्वार। अभयदानमें व्यय किया तथा धर्मायतन, तीर्थक्षेत्र और जैन मंदिरोंके रक्षार्थ अकथनीय परिश्रम उठाया तथा द्रव्य खर्च किया इत्यादि अनेक शुभ कृत्य करके आपने शास्त्रोक्त गृहस्थ धर्मका पालन किया है। यह बात सब जन समूहके लिये अनुकरणीय है। आपने लक्ष्मी उपार्जन करके भी कभी अपने धार्मिक नित्य नियमको नहीं छोड़ा तथा स्वयं शास्त्राभ्यासी रहकर अपनी सन्तानको भी प्रसिद्ध सद्विद्या रत्नसे विभूषित कर अपने रत्नस्वामित्वको सार्थक किया है। आपके इन्हीं सदकृत्योंपर मोहित होकर गवर्नमेंटने जे० पी० (Justice of Peace ) की तथा श्री दक्षिण महाराष्ट्र जैन समाने दानवीरकी पदविएं प्रदान की हैं, और यह भारतवर्षीय दिगंबर जैन महासभा आपके उपकारकी ओर अपनी भक्ति प्रकट करनेके लिये आपको उन पदविओंसे मी विशेष " जैन कुलभूषण" की सुपदवीसे सम्मानित कर अपना हार्दिक प्रेम पुष्प अर्पण करती है। आशा है आप इसे स्वीकार कर जैनसमाजको कृतार्थ करेंगे। द. हुकमचंद ___सभापति भारतवर्षीय दि० जैन महासमा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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