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________________ ५३४ ] अध्याय ग्यारहवां। भाइयोंको अच्छी तरह वंचाकर उनके मनका समाधान किया गया। आगे दुसरी एक दिगम्बरी देहरी है जिसमें बहुत मनोज्ञ दिग० जैन प्रतिमा पद्मासन विराजमान थी। यहां दिग० लोग पत्थर जड़ाना चाहते थे सो श्वे० रोकते थे। इस प्रतिमामें श्वे. मूर्तिके चिन्ह जो कमरमें कंडोर। व आसनमें लंगोटका चिन्ह होता है तो न थे तौभी इवे० ने हर्ष सहित कबूल नहीं किया। नीचे आकर सेठ फतेहचंद सांकलचंदके सामने तीसरे पहर बात होकर यह तय हुआ-चांद सूरजकी देहरीको व उसके जाने के मार्गको दि० लोग दुरुस्त करें हमें कोई उनर नहीं है । पर दूसरी देहरीका झगड़ा बाकी रक्खा और यह कहा कि हम अपने संघ व साधुको दिखाकर निर्णय करेंगे, यद्यपि हमें दिगम्बरी मालूम होती है तबतक न इस पर चक्षु चढेंगे न आंगीकी रचना होगी । पूना दोनों करें-मरम्मत उस समय तक कोई न करावे । ___ यह सिद्धक्षेत्र इस कारणसे है कि यहांसे वरदत्त सागरदत्त आदि मुनीन्द्र व साढ़े तीन करोड़ मुनि मुक्ति पधारे हैं । सिद्धशिला दूसरी ओर है। वहां एक गुफाके पास दो स्थानोंपर पुरानी दिगम्बर जैन मूर्तियां हैं। ऊपर जाकर एक दिगम्बर देहरीमें चारों ओर ४ प्रतिमाएं व उनके चारों ओर चरण हैं। दोमें जीर्णोद्धार सम्वत् १६११ और १९२१ है। दिगम्बरी कारखानेका प्रबन्ध ईडरके पंचोंके आधीन था पर व्यवस्था कायदेसे नहीं होती थी, तत्र ताः २१ की शामको सब दिगम्बरियोंको समझाकर सेठनीने प्रबन्धकारिणी सभाके लाभ समझाए और तीर्थक्षेत्र कमेटोके आधीन एक प्रबन्धकारिणी कमेटी बना दी जिसके सभापति लल्लूभाई Jain Education International For Personal & Private se Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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