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अध्याय ग्यारहवां । जल और दूध चढ़ता है । पीछे सुर्वण व रत्नोंकी आंगी व मुकुट पहनाया जाता है, पुष्पादि चढ़ाए जाते हैं। रात्रिको आंगी उतार कर सारे अंगमें गुलाल उड़ाते हैं । आंगीका चढ़ाना सं० १७०२ से शुरू हुआ ऐसा यहांके श्रावकोंसे मालूम हुआ। दिगम्बर जैन यात्री प्रतिमाजीके अभिषेक समय दर्शन व पूजा करते हैं। यहां चारों तरफ मंदिरों में दि० जैन बिम्ब हैं जिसके प्रतिष्ठाकारक मूलसंघी व काष्ठासंघी भट्टारक हैं । यद्यपि यह सर्व मंदिर दिगम्बर जैनियोंके लक्षोंके व्ययसे बने हैं पर अब इन सर्वके प्रबन्धका अधिकार उदयपुर रानाके आधीन ८ मेम्बरों की एक कमेटी करती है जिसमें उस समय २ वैष्णव व ६ श्वेताम्बर जैनी मेम्बर थे, दि० कोई नहीं था । मुख्य मेम्बर म्हेता मनोरसिंहजी, मगनलाल पूनावत्, महेता वखतसिंह हाकिम हैं । एक ही वेदीमें एक ओर श्वेताम्बरी दूसरी ओर दिग० पूनन होती है। गांव घविड़ासे धुलेव तक २ मीलका रास्ता बहुत खराब है। सेठजीने बड़े भावसे दर्शन किये तथा देखा कि यहां केवल एक हिन्दी मदरसा है जिसमें २ अध्यापक हैं, अधिकांश दि० जन छात्र हैं पर धर्म शिक्षाका कोई प्रबन्ध नहीं है । सेठजीने वहांके लोगोंको बुलाकर समझाया कि जैन पाठशालाका प्रबन्ध करें, उन्हें मासिक सहायता भी दी जायगी। पत्रव्यवहारका पता छगनलाल मेहता दुकान सेठ धनराज रतनचंद पोष्ट रिखभदेव जिला मेवाड लिखलिया। यहां ईडरके पंचोंकी बनवाई हुई एक बड़ी धर्मशाला है जिसमें ठहरनेका आराम है। दिगम्बर यात्री बहुत आते हैं। यहांसे चलकर परसाद गांवमें फिर आए। पाठशालाके लिये उत्तेजन करके
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