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अध्याय दूसरा |
यहां बनने से यह स्थान विद्यानंदिके नामसे प्रसिद्ध हुआ हो। कहते हैं कि यहां मूलवेदीको रायकवाल जातिके शिवामोरारने बनवाई थी । यह जाति भी इस ओर बहुत प्रसिद्ध हो गई है । इस जाति के घर सूरत के सलाबतपुरा, खरादीसेरी व बम्बईपुरा मुहल्लोंमें १०० वर्ष पहिले ४० थे तथा सूरतसे १५ मील बारडोली में २०० वर्ष पहिले ५० घर थे । अब सुरतमें इसका नाम व निशान भी नहीं है परंतु अब भी इस जातिके ५ घर व्यारा में मुखिया सेठ शिवलाल झवेरचंद तथा ८ घर महुआ में मुखिया सेठ इच्छाराम झवेरचंद तथा कुछ घर वांच आदि में भी है। जिस तरह आज कल छोटी २ जातियों में जैनियोंका विभाग होनेसे व जातिमें बाल विवाह, वृद्धविवाह, व्यर्थव्यय आदि कुरीतियों के होनेसे प्रत्येक जातिके स्त्री पुरुषोंकी संख्या बड़े वेग से घट रही है - विधवा व विधुरोंकी संख्या अधिक होनेसे दिनपर दिन संतानक्रम बन्द हो रहा है, ऐसा ही सौ दो सौ वर्ष पहिले भी था । इसीसे इस जातिका अब कोई मनुष्य सूरत में नहीं दिखलाई पड़ता । सूरत नगरमें इस जातिका कैसा गौरव था इसको प्रगट करनेवाला एक शिलालेख नीचे दिया जाता है । यह लेख उन २४ बड़ी भव्य प्रतिबिम्बों से एक प्रतिबिम्पर है जो बड़ा चौटा जिसको अब नानावट कहते हैं, के मंदिरजीमें विराजमान थी और अब वे सब चंदावाड़ी के पासवाले बड़े ( पुराने ) मंदिरजी में स्थापित हैं ।
नकल शिलालेख |
"श्रीजिनो जयति । स्वस्ति श्री १८०५ वर्षे शाके १६७५ : प्रवर्तमाने वैसाख मासे शुकपक्षे चन्द्रवासरे गुर्जरदेशे सूरतबन्दर
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