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________________ ४२२] अध्याय दशवां। बाबू शीतलप्रसाद जो थोड़े ही दिन पहले सेठ माणिकचंद जीसे काशीमें या उज्जैनमें मिले थे, इस बाबू शीतलप्रसादको अवसरपर भी आए थे और महासभा आदिके सेठ माणिकचन्दसे कामों में बहुत ही खटपट दौड़धूप करते दिख'विशेष परिचय । लाई पड़े थे । सेठ माणिकचन्दजी सभापति थे, उनके पास प्रस्तावादिकोंके विचारने व मंडपमें बुलानेके लिये कई दफे जाना हुआ तब सेठजीसे कई दफे बातचीत हुई । आपने शीतलप्रसादनीका सर्व हाल मालूम किया । यह भी जाना कि यह स्त्रीके देहान्त हो जानेके बादसे उदासचित्त हैं। दफ्तरमें भी ता० १९ आगस्त १९०५ को स्तीफा दे दिया है तथा इच्छा धर्म व जातिकी सेवा करनेकी है। तर आपने कहा कि मैं भी अपना सब समय इसी समाजसुधारकी स्वटयटमें बिताता हूं और यह चाहता हूं कि आप ऐसे धर्मबुद्धि व परिश्रमीका समागम रहे तो मेरेसे बहुत कुछ काम हो सके, सो आप बम्बई आवें, वहीं इच्छानुसार कुछ धन्धा करें व हमें मदद देवें । शीतलप्रसादजीके चित्तमें सेठ माणिकचन्दनीका सरलचित्त, धर्मप्रेम, जातिसुधारका परिश्रम व धर्मात्माओंसे हार्दिक प्रेम आदि मुणोंने ऐसा असर किया कि उन्होंने निश्चय कर लिया कि हम लखनऊ होकर तुर्त ही बम्बई आवेंगे और आपके साथ रह धर्म व समाजकी सेवा करेंगे। शीतलप्रसादनी लखनऊ आए। अपने दो बड़े भाइयोंसे कहा कि हम बम्बई जाना चाहते हैं । इस बातको सुनकर जवाहरातका काम करनेवाले अनन्तलालजीको बहुत दुःख हुआ, क्योंकि विलायतसे जवाहरातके व्यापारके काममें व्यापारियोंके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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