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अध्याय दशवा इसके खोलनेकी क्रिया ता.९ दिसम्बर १९०५को ४ बजे दिनके की गई। शहरके प्रतिष्ठित जन निमंत्रित किये गए थे । न्यायमूर्ति चंदावकर, डॉ० सर भालचंद्र, आनरेवल गोकुलदास कहानदास पारेख, मजि० करसनदास छबीलदास, सर करीमभाई इब्राहीम आदि मंडली उपस्थित थी। प्रथम ही शेठ माणिकचंदजीने कहा “बम्बई में हिंदू व जैन यात्रियों के अधिक आनेके कारण उनको ठहरनेकी बहुत तकलीफ होती थी उसको दूर करनेके लिये ऐसी धर्मशाला बांधनेकी इच्छा हमारे बड़े भाई पानाचंहको थी पर खेद है उनके सामने हम तय्यार न कर सके । अब इस इमारतको मगसर सुदी १ सं० १९६१ में शुरू करके मगसर सुदी १३ सं० १९६२ के दिन हम इसे पूर्ण कर सके हैं। इसके खोलनेके लिये हम सर हरकिशनदास नरोत्तमदास नाइट से प्रार्थना करते हैं । " तब अध्यक्ष सर हरकिशनदासने कहा कि “ इस धर्मशालाके बनानेवाले बहुत ही गरीब स्थितिके थे पर पूर्ण परिश्रमसे संपत्ति मिलाकर यही कार्य नहीं इसके पहले अनेक कार्य किये हैं। यह धर्मशाला सर्व हिंदुओंके लाभके लिये बंधवाई गई है इससे इनकी उदारता व सर्व जन हितपना अच्छी तरह झलक रहा है।" इत्यादि कहकर धर्मशालाके दीवानखानेका ताला खोला ! सभा सानन्द समाप्त हुई।
सेठ माणिकचंदनीका हरएक काम पक्का होता है। आपने ता० १०-६-०७ को इसका ट्रष्ट डीड रजिष्टर करा दिया और जो हीराचंद गुमानजी बोके टूष्टी हैं वे ही इसके नियत किये तथा इसकी एक प्रबन्धकारिणी कमिटी भी रच दी। इसके ट्रष्टमें
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