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गुजरात देशके सूरत शहरका दिग्दर्शन । [ १९ सबको वैसाका वैसा ही उस कंचनीके सामने जाके धर दिया। सुरज इसकी सरलता व सत्यताको देख अचंभेमें आ गई। और इतनी प्रसन्न हुई कि वह सब माल उसको दे दिया और दिनपर दिन इससे व उसके पुत्र गोपीसे उनकी सच्ची खिदमतके कारण बहुत ही राजी रहने लगी । सुरजकी उमर छोटी नहीं थी। आयु कर्म शेष होनेसे जब वह मरने लगी तब अपनी सब जायदाद गोपीकी मा और गोपीको दे दी और कहा-तुम इसका अच्छा व्यवहार करना और मेरा नाम मशहूर करना। मैं तो जाती हूं, पर मेरा नाम रहना चाहिये । वास्तवमें जिसके दिलमें सम्यक्त्व नहीं होता, जो आत्माको अजर अमर अविनाशी आनन्दरूप नहीं अनुभव करता, उसके दिलको सन्तोष केवल कषायोंको पोषनेसे ही होता है। सारी दौलतका वियोग होते हुए उस सुरनके दिलमें मान कषायने जोर किया और इसीसे पीछे मेरा नाम रहे इस स्वार्थने कंठगतप्राण होनेपर भी उस कंचनीकी आत्माको नहीं छोड़ा। खैर, गोपी और उसकी माने बहुत से मकानात बनवाये तथा गोपीपुरा बसाया और गुजरातके बादशाह शाह मुहम्मद बेगड़ाके पुत्र खलीलखां अलकाव मुज़फ्फरशाहसे मिलकर नायवका खिताब हासिल किया । गोपी बड़ा उद्योगी था। इसके प्रयत्नसे यहां व्यापार और भी बढ़ने . लगा। सन् १५१६ में इसने एक तालाब बनवाया जो अब खेतरवाड़ी (खेतरपाल) के पास गोपोतालावके नामसे मौजूद है।
इस वक्त यूरुपसे पुर्तगाल लोग, जिनको यहां फिरंगी कहते थे, आने लगे थे। सन् १४९८में वास्कोडिगामा पहिले पहिल भारतमें आया। इस समय इस ताप्ती नदीके तटपर उनके जहाज़पर जहाज़
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