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महती जातिसेवा प्रथम भाग । [३९५ कसीदा काढ़कर महीने में ८) व १०) रु. के अनुमान पैदा कर लेती थीं। बड़ा ही सरल मिनाज़ था । ऐसी माता व आज्ञाकारिणी स्त्री व छोटे भाईके समागममें कुछ दिन शीतलप्रसादको स्वर्गके समान सुख मालूम होता था और अपनेको साता होने का बड़ा गर्व था कि मैं संतोष में दिन बिता रहा हूं, पर संसारकी दशा क्षणभंगुर है, अंतराय कर्म किसी की स्थितिको एकसी नहीं रहने देता । लखनऊमें प्लेग प्रकोप हुआ। और ता० ९ से १५ मार्चके भीतर वे ही तीन साथी जिनके उपर शीतलप्रसादके शरीरका वैय्यावृत्त निर्भर या यकायक इस हाडमई देहको छोड़कर चल दिये। इस घटनासे शीतलप्रसादके चित्तको जो आघात पहुंचा वह वर्णनके बाहर था। पर श्री ज्ञानार्णव, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि शास्त्रके पढ़नेका ऐसा भारी असर चित्तमें था कि शोककी तरङ्ग आती थी और जाती थी पर इतनी बलवती नहीं हुई थी कि आंखोंसे आंसुओंकी धारा बहा निकाले । शीतलप्रसादको रोते न देखकर लोग आश्चर्य करहे थे । भा० दि० जैन महासभाके साथ शीतलप्रसादका सम्बन्ध बहुत पुराना हो चुका था । जब बाबू सूर्यभानने जैनगज़ट जारी किया था और उसकी प्रतिये श्री शिखरजीमें वांटी थी उसमेंसे एक प्रति शीतलप्रसादके पिता मक्खनलालको प्राप्त हुई थी जो यात्राको गए थे, उस समय शीतलप्रसाद कलकत्तमें थे और अपने मंझले बड़े भाई अनंतलालके साथ जवाहरातका व्यापार व दलाली करते थे। पिताने वह जैन गज़ट शीतलप्रसादको दिया उसीको पढ़कर शीतलप्रसादके भीतरकी ज्ञान चिनगारी जग उठी और इसने जैनगजट मंगाना शुरू किया व उसमें लेख भी भेजने शुरू किये ।
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