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अध्याय नवां ।
सेठ माणिकचंदने और भी कहा कि इस धनमेंसे कुछ धर्मादा
निकालना चाहिये फिर भाग करना चाहिये। रु० २ लाखके दा- इस पर बम्बईमें धर्मशाला आदि बननेके लिये नका संकल्प। दो लाख का धन धर्मादेके लिये निकालकर
शेषका भाग हुआ । दूकानका सम्बन्ध अब सेठजीने छोड़ दिया, तौभी आप प्रतिदिन ४ या ५ घंटे दुकानपर बैठते थे । वहांपर धर्म सम्बन्धी पत्रव्यवहार किया करते थे। किसीको यह प्रतीत नहीं होता था कि इन्होंने अपना सम्बन्ध दूकानसे छोड़ दिया है । सेठ माणिकचंदनीने बड़ी दोनों पुत्रियोंके नामपर एक २ मकान खरीद दिये और ताराव्हेनके नामसे रोक रु० जमा किये जिससे इनको अपने जीवन में कोई कष्ट न हो। मगनबाईकी खास जायदाद कई लक्ष रु० की थी और यही
अपनी सास ससुरके पीछे उस सब धनकी मगनबाईकी निलो- स्वामिनी थी, पर पिता माणिकचंदने उसका भता । मन उस धनसे फेर दिया । यही कहा कि
तेरे पालनके लिये यहां कुछ कमी नहीं है, यदि जो तू अभी श्वसुरालके धनके लोभमें पड़ेगी तो तू अपने आत्माका हित नहीं कर सकेगी। मगनबाई उसी वक्त इस बातको समझ गई । उस भारी सम्पत्तिसे मोह हटा लिया और बम्बई में ही एक पुत्रकी भांति सेठ माणिकचंदनीके साथ रहने लगी। कभीर दो चार दिनको परदेशीकी भांति श्वसुरालमें हो आती थी। यह बड़े सन्तोषसे पुत्री केशरको पालती और धार्मिक विद्याका अभ्यास करती थी।
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