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________________ ३३० ] अध्याय नवां । सेठ माणिकचंदजीको यह जानकर बहुत शोक हुआ कि भारतवर्षीय दि० जैन महासभाके सभापति राजा लक्ष्मणदासजी-राजा सेठ लक्ष्मणदासजी सी० का देहान्त और आई० ई० मथुरा अपनी केवल ४५ धर्मशालाका वर्षकी आयुमें १५ नव० सन् १९०० के विचार। दिन इस संसारसे कुच कर गए। सेठजीको अपनी स्थितिपर ध्यान आया कि मेरी अव क्या अब ४८ वर्षकी है। कालचक्र हरसमय सिर पर धूम रहा है इससे मुझे जो कुछ करना हो मो शीघ्र कर लेना चाहिये। आप लोचने लगे कि बम्बई में दि० जैन यात्रियों को जो श्री पालीताना, गिरनार, पावागढ, आव, तारंगा आदिकी यात्रा करते हुए बम्बई आते हैं ठहरनेकी बड़ी भारी तकलीफ होती है इससे इनके लिये शीघ्र एक बड़ी भव्य धर्मशाला बन जाव तथा उसमें एक लेकचर हॉल भी हो जिससे जैन व जैनेतर विद्वान् अपने अनुभवकी बातें सुनाकर सर्व साधारणका कल्याण करें। दूसरे मेरी इच्छा है कि गुजरात व दक्षिण में शीघ्र ऐसे ही बोर्डिग स्थापित हों तथा जो जैनियोंमें करीति व अनेकता फैली हैं सो मिटै इत्यादि काम जितनी जल्दी हो मुझे करने चाहिये। एक दिन अपने विचार किया कि नियोंमें ८४ जातियां है पर सिवाय दोचारके और किसीके इतिहासका जैनियोमें ८४ जातिके पता नहीं तथा प्राचीन शास्त्रोंमें तो सिवाय इतिहासके लिये ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र चार वर्णो के इनाम। और जातियोंका पता नहीं चलता। येनातिया कैसे हुई इसकी चर्चा भी सभाके मेम्बरोंसे Jain Education International For Personal & Private Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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