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________________ ३०२ ] अध्याय आठवाँ । माणिचंदजीकी नहीं थी । इसीसे सेठजीके चित्तमें बालकों पर दया आई और उनको स्वयं धर्मशिक्षा देकर अटूट ज्ञानदान किया । यह उदाहरण इस बात के प्रगट करनेके लिये वश है कि सेठ माणिकचंद्रको धार्मिक शिक्षाका कितना प्रेम था । थोड़े दिन बाद कुछ कार्यवशात् सेठ माणिकचंदजी सूरत आये थे तब एक दिन सेठजी चंद्रप्रभुके मूलचंद किसनदास मंदिरजी में धर्मकार्यसे निवट कर पाटे पर कापड़ियाका प्रथम बैठे थे तब एक बालकको दर्शन करते हुए परिचय | देखकर इनके मनमें आई कि यह कुछ होनहार मालूम होता है, इंग्रेजी पढ़ता मालूम होता है । उसको कुछ उपदेश करना चाहिये । यही वह मूलचंदजी कापड़िया थे जो इस समय भारतवर्ष में प्रसिद्ध हैं, “दिगम्बर जैन" मासिक पत्रके सम्पादक हैं, जैनमित्र साप्ताहिक पत्रके प्रकाशक, 'जैनविजय' प्रेसके स्वामी और रात्रिदिन जैन जातिकी सेवामें लीन हैं। उस समय इनकी आयु १७ वर्षकी थी। यह वीसा हूमड़ मंत्रेश्वर गोत्रधारी सूरतनिवासी सेठ किसनदास पूनमचंद कापड़िया के तृतीय पुत्र 1 इंग्रेजी छठी स्टेन्डर्ड में पढ़ते थे पर धर्म साधनमें सिवाय दर्शन करने के कुछ नहीं जानते थे । जब यह दर्शनकर चुके तत्र सेठजीने इनको बुलाया । पास बैठाकर पूछा कि तुम कुछ धर्मकी बात जानते हो । जबाव ना का पानेपर फिर सेठजीने यह जानकर कि यह संस्कृतके साथ इंग्रेजी पढ़ते हैं कहा कि धर्मज्ञानके बिना धर्म - सेवन नहीं हो सक्ता है - केवल इंग्रेजी पढ़नेसे लाभ न होगा । तुम For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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