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संयोग और वियोग । [२८९ इसका मंगलाचरणका प्रथम श्लोक यह हैगाथा-सिद्धमणंत भणदिय मणुवममप्युत्थ सोक्खमणवज्ज ।
केवल यहोह णिज्जियदुण्णय तिमिरं जिणं णमह ।।
भावार्थ-स्वकार्य सिद्ध करने वाले, अतीन्द्रिय अनुपम व स्तुत्य मुखको प्राप्त करनेवाले तथा केवलज्ञानरूपी सूर्य्यसे मिथ्यातमके अंधकारको हरनेवाले जिनेन्द्रको नमस्कार हो ।
श्रीजयधवल ग्रन्थके कनड़ी जीर्णपत्रे ५१८ हैं उसकी कनड़ी कापी जो अब हुई उसमें २१०० व हिन्दी कापीमें ७५० पत्रे हैं इसके श्लोक ६००० ० हैं। इसके प्रारम्भमें १ श्लोक मंगलाचरणका यह है-- गाथा--तित्थयण च उवीस विकेवल णाणेण दिह सबछा ।
पसियंतु सिवसरोवा तिहुवण सिर सेहरा मज्झं ।।
भावार्थ-केवलज्ञानसे सर्व पदार्थोको देखनेवाले, मुक्ति पानेवाले व तीन भवनके शिरोमणि ऐसे २४ तीर्थकर मरेपर प्रसन्न होहु । रुम्मणीबाईके साथ लग्न होते ही ९ मास बाद सेठ पाना
चंदको सबसे प्रथम जिस पुत्रीरत्नका भी सेठ पानाचंदजीको लाभ हुआ था वह कुछ मास जी कर द्वि० पुत्रीका लाभ । संसारसे चल बसी थी। अब सं. १९५२में फिर
सेठ पानाचंदको एक पुत्रीका लाभ हुआ। इसका शरीर शुरूसे ही दृढ़, सौम्य व गठीला था। यथायोग्य जन्मोत्सव करके इसका नाम लीलावती रक्खा गया। माताने इसके शरीर रक्षगमें खूब प्रयत्न किया ।
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